श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10॥
उस निरन्तर (मुझमें) लगे हुए भजन करने वाले (भक्तों)-को मैं प्रीतिपूर्वक वह बुद्धियोग देता हूँ कि जिससे वे मुझको प्राप्त हो जाते हैं।। 10।।
तेषां सततयुक्तानां मयि सततयोगम् आशंसमानानां मां भजमानानाम् अहं तम् एव बुद्धियोगं विपाकदशापन्नं प्रीतिपूर्वकम् ददामि येन ते माम् उपयान्ति।। 10।।
उन निरन्तर लगे हुए-निरन्तर मेरा संयोग चाहने वाले और मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं वही परिपक्क अवस्था को प्राप्त बुद्धियोग (बड़े) प्रेम के साथ देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं।। 10।।
किं च
तथा-
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥11॥
उन्हीं पर अनुग्रह करने के लिये मैं (उनके) आत्मभाव में स्थित होकर (उनके) अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को प्रज्वलित ज्ञान-दीपक से नाश कर देता हूँ।। 11।।
तेषाम् एव अनुग्रहार्थम् अहम् आत्मभावस्थः तेषां मनोवृत्तौ विषयतया अवस्थितो मदीयान् कल्याण गुणगणान् च आविष्कुर्वन् मद्विषयज्ञानाख्येन भास्वता दीपेन ज्ञानविरोधिप्राचीनकर्मरूपाज्ञानजं मद्वयतिरिक्तविषय प्रावण्यरूपं पूर्वाभ्यस्तं तमः नाशयामि।। 11।।
उन्हीं पर अनुग्रह करने के लिये उनके आत्मभाव में स्थित- उनकी मनोवृत्ति में प्रकट-रूप से विराजमान मैं, अपने कल्याणमय गुणगणों को प्रकट करके अपने विषय के ज्ञानरूप प्रकाशमय दीपक के द्वारा, उनका जो पूर्व-अभ्यस्त ज्ञान-विरोधी प्राचीन कर्मरूप अज्ञान से उत्पन्न मुझसे अतिरिक्त लौकिक विषयों में प्रीतिरूप अन्धकार है, उसका नाश कर देता हूँ।। 11।।
एवं सकलेतरविस जातीयं भगवदसाधारणं श्रृण्वतां निरतिशयानन्द जनकं कल्याणगुणगणयोगं तदैश्वर्य विततिं च श्रुत्वा तद्विस्तारं श्रोतुकामः अर्जुन उवाच-
इस प्रकार अन्य सबसे विजातीय (विलक्षण) और श्रवण करने वालों को अतिशय आनन्दजनक भगवान् के असाधारण कल्याणमय गुणगणरूप योग को और उनके ऐश्वर्य के विस्तार को सुनकर उसे अधिक विस्तार पूर्वक सुनने की इच्छा वाला अर्जुन बोला-
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