श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्ययेऽपि स्यु: पापयोनय: ।
स्त्रियो वैश्वास्तथा शूद्रा-स्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥32॥
अर्जुन! मेरा आश्रय लेकर स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र (अथवा) जो भी कोई पापयोनि हों, वे भी परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।।32।।
स्त्रियों वैश्याः शूद्राः च पापयोनयः अपि मां व्यपाश्रित्य परां गतिं यान्ति।। 32।।
स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र और पापयोनिवाले जीव भी मेरी शरण लेकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।। 32।।
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥33॥
फिर पुण्ययोनि ब्राह्मणों और राजर्षि भक्तों के लिये तो कहना ही क्या? (इसलिये) तू इस अनित्य और सुखरहित मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर मुझको (ही) भज।। 33।।
किं पुनः पुण्ययोनयो ब्राह्मणाः राजर्षयः च मद्भक्तिम् आश्रिताः। अतः त्वं राजर्षिः अस्थितरं ताप त्रयाभिहततया असुखं च इमं लोंक प्राप्य वर्तमानो मां भजस्व।। 33।।
फिर, पुण्ययोनि वाले ब्राह्मण और राजर्षिगण मेरी भक्ति का आश्रय लेकर (परमगति को प्राप्त करें) इसमें तो कहना भी क्या है। अतएव तू राजर्षि है, इसलिये जो अनित्य है और तीनों प्रकार के तापों से बार-बार व्यथित किया जाने के कारण सुखरहित है, ऐसे इस शरीर को पाकर इसमें रहता हुआ मेरा ही भजन कर ।। 33।।
भक्तिस्वरूपम् आह-
अब भक्ति का स्वरूप बतलाते हैं-
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