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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥34॥
मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको नमस्कार कर। इस प्रकार आत्मा को लगाकर मेरे परायण हुआ तू मुझको ही प्राप्त होगा।। 34।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राज विद्याराज गुह्य योगो
नाम नवमोऽध्यायः।। 9।।
मन्मना भव मयि सर्वेश्वरे निखिल हेयप्रत्यनीककल्याणैकताने सर्वज्ञे सत्यसंकल्पे निखिलजगदेककारणे परिस्मन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे पुण्डरीकदलामलायतेक्षणे स्वच्छनीलजीमूत सङ्काशे युगपदुदितदिनकर सहस्र सदृशतेजसि लावण्यामृतमहोदधौ उदारपीवरचतुर्बाहौ अत्युज्जवल पीताम्बरे अमलकिरीटमकरकुण्डलहार केयूरकटकादिभूषिते अपारकारुण्य सौशील्यसौन्दर्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यवाल्सल्यजलधौ अनालोचितविशेषा शेषलोकशरण्ये सर्वस्वामिनि तैलधारावद् अविच्छेदेन निविष्टमना भव।
मुझमें मन वाला हो- मैं जो सबका ईश्वर, सम्पूर्ण जगत् का एकमात्र कारण, समस्त त्याज्य दोषों के विरोधी केवल कल्याणमय प्रवाह से युक्त, सर्वज्ञ, सत्य संकल्प, कमलदलसदृश निर्मल और विशाल नेत्र वाले, स्वच्छ नील मेघसदृश श्यामवर्ण, एक साथ उदय हुए सहस्रों सूर्यों के सदृश तेजसम्पन्न, लावण्यरूप सुधा का महान् समुद्र, पुष्ट एवं उदार चार भुजाओं से युक्त, अत्यन्त उज्ज्वल पीताम्बर धारी, निर्मल किरीट, मकराकृति कुण्डल, हार, कडे़ बाजूबन्द आदि भूषणों से विभूषित, अपार, कारुण्य, सौशील्य, सौन्दर्य, माधुर्य, गाम्भीर्य, औदार्य और वात्सल्य का समुद्र, बिना अच्छे-बुरे के भेद का विचार किये समस्त लोकों को शरण देने वाला, सबका स्वामी परमब्रह्म पुरुषोत्तम हूँ, उस परमेश्वर में तैलधारावत् अविच्छिन्न-भाव से मन लगाने वाला हो।
तद् एव विशिष्टमन-मद्भक्तः अत्यर्थमत्प्रियत्वेन युक्तो मन्मना भव इत्यर्थः।
उसी की विशेषता बताते हैं- मेरा भक्त हो अर्थात् मेरे अतिशय प्रेम से युक्त होकर मुझमें मनवाला हो।
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