श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ॥31॥
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली शान्ति को प्राप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।। 31।।
मत्प्रियत्वकारितानन्यप्रयोजन मद्धजनेन विधूतपापतया एव समूलोन्मूलितरस्तमोगुणः क्षिप्रं धर्मात्मा भवति क्षिप्रम् एव विरोधि रहितसपरिकरमद्भजनैकमना भवति। एवंरूपभजनम् एव हि ‘धर्मस्य अस्य परन्तप।’ [1] इति उपक्रमे धर्म-शब्दोदितः।
बिना किसी अन्य प्रयोजन के केवल मेरे प्रेमवश किये जाने वाले मेरे भजन से उसके सारे पाप धुल जाते हैं; इसी से उसके रजोगुण और तमोगुण समूल नष्ट होकर वह शीघ्र ही विरोधी गुणों से रहित एकमात्र मेरे सर्वागंपूर्ण भजन में ही मन लगाने वाला हो जाता है। क्योंकि इस प्रकार के भजन को ही प्रारम्भ में ‘धर्मस्यास्य परन्तप’ इस प्रकार ‘धर्म’ के नाम से कहा गया है।
शश्वच्छान्तिं निगच्छति। शाश्वतीम् अपुनरार्विनीं मत्प्राप्तिविरोध्याचार निवृत्तिं गच्छति।
फिर वह शाश्वती (सदा रहने वाली) शान्ति को प्राप्त हो जाता है- मेरी प्राप्ति के विरोधी आचरणों की आत्यन्तिक निवृत्तिरूप सनातनी-पुनः न लौटने देने वाली स्थिति को प्राप्त हो जाता है।
कौन्तेय त्वम् एव अस्मिन् अर्थे प्रतिज्ञां कुरु मद्धक्तौ उपक्रान्तो विरोध्याचारमिश्रः अपि न नश्यति अपि तु मद्धक्तिमाहात्म्येन सर्व विरोधिजातं नाशयित्वा शाश्वतीं विरोधिनिवृत्तिम् अधिगम्य क्षिप्रं परिपूर्णभक्तिः भवति ।। 31।।
कौन्तेय! (भैया अर्जुन!) इस विषय में तू स्वयं ही प्रतिज्ञा कर कि मेरी भक्ति में लगा हुआ पुरुष विरोधी आचरणों से मिश्रित होने पर भी नष्ट नहीं होता, बल्कि मेरी भक्ति की महिमा से समस्त विरोधी समुदाय का नाश करके सदा रहने वाली शान्ति को-विरोधि-निवृत्ति को प्राप्त करके शीघ्र ही परिपूर्ण भक्तिमान् हो जाता है।। 31।।
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