श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥23॥
जो भी अन्य देवताओं के भक्त श्रद्धा से युक्त होकर (उसको) पूजते हैं वे भी, हे अर्जुन! मुझको ही अविधिपूर्वक पूजते हैं।। 23।।
ये अपि अन्यदेवताभक्ताः ये तु इन्द्रादिदेवताभक्ताः केवलत्रयीनिष्ठाः श्रद्धया अन्विताः इन्द्रादीन् यजन्ते, तेऽपि पूर्वोक्तेन न्यायेन सर्वस्य मच्छरीरतया मदात्मत्वेन इन्द्रादि शब्दानां च मद्वाचित्वाद् वस्तुतो माम् एव यजन्ते अपि तु अविधिपूर्वक यजन्ते। इन्द्रादीनां देवतानां कर्मसु आराध्यतया अन्वयं तथा वेदान्त वाक्यानि ‘चतुर्होतारो यत्र सम्पदं गच्छन्ति देवैः’ [1] इत्यादीनि विदधति, न तत्पूर्वकं यजन्ते।
जो कोई अन्य देवताओं के भक्त इन्द्रादि देवताओं के भक्त, केवल त्रयीविद्या निष्ठ श्रद्धायुक्त पुरुष इन्द्रादि देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी, पूर्वोक्त रीति से सब कुछ मेरे शरीर रूप से मेरा ही स्वरूप होने के कारण इन्द्रादि शब्द भी मेरे ही वाचक हैं, इसलिये, वास्तव में, मेरी ही पूजा करते हैं; परन्तु अविधिपूर्वक करते हैं। अभिप्राय यह है कि ‘चतुर्होतारो यत्र सम्पदं गच्छन्ति देवैः’ इत्यादि वेदान्तवाक्य इन्द्रादि देवताओं का यज्ञादि कर्मों में आराध्य रूप से जिस प्रकार अन्वय-विधान करते हैं, उसके अनुसार वे मेरी पूजा नहीं करते।
वेदान्तवाक्यजातं हि परमपुरुष शरीरतया अवस्थितानाम् इन्द्रादीनाम् आराध्यत्वं विदधद् आत्मभूतस्य परमपुरुषस्य एव साक्षाद् आराध्यत्वं विदधाति।
सभी वेदान्त-वचन परमपुरुष के शरीर रूप में स्थित इन्द्रादि देवताओं की आराधना का विधान करते हुए उनके आत्मरूप परमपुरुष की ही साक्षात् आराधना का विधान करते हैं।
चतुर्होतारः अग्रिहोत्रदर्श पौर्णमासादीनि कर्माणि कुर्वाणा यत्र परमात्मनि आत्मतया अवस्थिते सति एव तच्छरीरभूतैः इन्द्रादिदेवैः सम्पदं गच्छन्ति, इन्द्रादि देवानाम् आराधनानि एतानि कर्माणि मद्विषयाणि इति मां सम्पदं गच्छन्ति इत्यर्थः।। 23।।
उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ यह है कि ‘अग्निहोत्र दर्शपौर्णमासादि कर्म करने वाले चार होतागण जिस परमेश्वर के आत्म रूप से स्थित रहने पर ही उसके शरीर रूप इन्द्रादि देवताओं के साथ (समान पदवी)- को प्राप्त होते हैं।’ अभिप्राय यह है कि इन्द्रादि देवताओं के आराधनरूप से कर्म वस्तुतः मेरी ही आराधना हैं, इस कारण वे सम्पत्ति रूप मुझको प्राप्त होते हैं।। 23।।
अतः त्रैविद्या इन्द्रादिशरीरस्य परमपुरुषस्य आराधनानि एतानि कर्माणि, आराध्यः च स एव, इति न जानन्ति, ते च परिमितफलभागिनः च्यवनस्वभावाः च भवन्ति, तद् आह-
अतएव त्रयीविद्यानिष्ठ (सकामी) पुरुष इस बात को नहीं जानते कि ये समस्त कर्म, इन्द्रादि देवता जिसके शरीर हैं, उस परमपुरुष की ही आराधना हैं, और वही आराध्य देव है; इसीलिये वे परिमित फल के भागी एवं पतनस्वभाव वाले हैं। यह बात अगले श्लोक में कहते हैं-
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