श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्यवन्ति ते ॥24॥
क्योंकि मैं ही सब यज्ञों का भोक्ता और प्रभु भी हूँ; परन्तु वे मुझको तत्त्व से नहीं जानते हैं, इसलिये गिर जाते हैं।। 24।।
प्रभुः एव च तत्र तत्र फलप्रदाता च अहम् एव इत्यर्थः।। 24।।
प्रभु भी मैं ही हूँ, इस कथन का अभिप्राय यह है कि उन-उनके रूप में फल प्रदान करने वाला भी मैं ही हूँ।। 24।।
अहो महद् इदं वैचित्र्यं यद् एकस्मिन् एव कर्मणि वर्तमानाः संकल्पमात्र भेदेन केचिद् अत्यल्पफलभागिनः च्यवनस्वभावाः च भवन्ति, केचन अनवधिकातिशयानन्दपरम- पुरुषप्राप्तिरूपफलभागिनः अपुनरा वर्त्तिनः च भवन्ति, इति आह-
अहो! यह महान् आश्चर्य है कि एक ही कर्म करने वाले केवल संकल्प के भेद से कोई तो अति तुच्छ फल के भागी और पतन-स्वभाव वाले होते हैं, एवं कोई अपार अतिशय आनन्दस्वरूप परमपुरुष की प्राप्ति रूप (महान) फल के भागी और वापस न लौटने वाले होते हैं, यह बात कहते हैं-
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रता: ।
भूतानि यान्तिभूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥25॥
देवव्रती देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितृव्रती पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों के पूजक भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरे पूजक मुझको ही प्राप्त होते हैं।। 25।।
व्रतशब्द संकल्पवाची, देवव्रताः दर्शपौर्णमासादिभिः कर्मभिः इन्द्रादीन् यजामः, इति इन्द्रादियजन संकल्पाः, ये ते इन्द्रादिदेवान् यान्ति। ये च पितृयज्ञादिभिः पितृन् यजामः, इति पितृयजनसंकल्पाः, ते पितृन् यान्ति।
यहाँ ‘व्रत’ शब्द संकल्प का वाचक है। जो देवव्रती हैं-‘दर्शपौर्णमास आदि कर्मों के द्वारा हम इन्द्रादि देवताओं का पूजन करेंगे’ इस प्रकार इन्द्रादि देवताओं के पूजन-विषयक संकल्प वाले हैं, वे इन्द्रादि देवताओं को पाते हैं। जो ‘पितृयज्ञादि के द्वारा हम पितरों का पूजन करेंगे’ इस प्रकार पितृपूजन विषयक संकल्प वाले हैं वे पितरों को पाते हैं।
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