श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥20॥
तीनों वेदों में निष्ठा रखने वाले, सोमरस पीने वाले और जिनके पाप विशुद्ध हो चुके हैं ऐसे पुरुष यज्ञों से मुझे पूजकर (मुझे न जानने के कारण) स्वर्ग-प्राप्ति की याचना करते हैं। वे पुण्यफलरूप इन्द्रलोक को पाकर स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं।। 20।।
ऋग्यजुः सामरूपाः तिस्त्रो विद्याः त्रिविद्यम्, केवलं त्रिविद्यनिष्ठिाः त्रैविद्याः। न तु त्रय्यन्तं निष्ठाः, तय्यन्तनिष्ठा हि महात्मानः पूर्वाक्त प्रकारेण अखिलवेदवेद्यं माम् एव ज्ञात्वा अतिमात्रमद्भक्तिकारित कीर्तनादिभिः ज्ञानयज्ञेन च मदेक प्राप्या माम् एव उपासते।
ऋक्, यजुः और साम- इन तीनों विद्याओं का नाम त्रिविद्य है और केवल इस त्रिविद्य में ही जिनकी निष्ठा है, उनका नाम त्रैविद्य है। यहाँ त्रैविद्य शब्द से वेदान्तनिष्ठ पुरुषों का ग्रहण नहीं है, क्योंकि जिनका केवल एक मैं ही प्राप्य हूँ, क्योंकि जिनका केवल एक मैं ही प्राप्य हूँ, ऐसे वेदान्तनिष्ठ महात्मा भक्त पूर्वोक्त प्रकार से समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य केवल मुझ परमेश्वर को जानकर मेरी अतिमात्र भक्तिपूर्वक किये जाने वाले कीर्तनादि के द्वारा और ज्ञानयज्ञ के द्वारा भी मेरी ही उपासना करते हैं।
त्रैविद्याः तु वेदप्रतिपाद्य केवलेन्द्रादियागशिष्टसोमान् पिबन्तः पूतपापाः स्वर्गादि प्राप्तिविरोधिपापात् पूताः तैः केवलेन्द्रादिदैवत्यतया अनुसंहितैः यज्ञैः वस्तुतः तद्रूपं माम् इष्ट्वा तथा अवस्थितं माम् अजानन्तः स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यं दुःखासम्भिन्नं सुरेन्द्रलोकं प्राप्य तत्र दिव्यान् देवभोगान् अश्रन्ति।। 20।।
परन्तु त्रैविद्य पुरुष जो वेदप्रतिपाद्य केवल इन्द्रादि के पूजन रूप यज्ञों से बचे हुए सोमरस को पीने वाले हैं, वे स्वर्गादि की प्राप्ति के विरोधी पापों से शुद्ध (रहित) होकर केवल उन इन्द्रादि को देवता मानकर किये हुए यज्ञों के द्वारा वास्तव में उनके रूप में स्थित मुझ परमेश्वर की पूजा करके भी, इस प्रकार से स्थित मुझ परमेश्वर को न जानने के कारण स्वर्ग प्राप्ति की याचना करते हैं। अतः वे पुण्यमय-दुःख से अमिश्रित इन्द्रलोक को पाकर वहाँ देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं।। 20।।
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