श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 213

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥7॥

अर्जुन! कल्प के अन्त में सारे भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्प के आदि मैं पुनः उनको उत्पन्न करता हूँ।। 7।।

स्थावरजङ्गमात्मकानि सर्वाणि भूतानि मामिकां मच्छरीरभूतां प्रकृतिं तम: शब्दवाच्यां नामरूपाविभागानर्हां कल्पेक्षये चतुर्मुखावसाअनसमये मत्सङ्कल्पाद यान्ति। तानि एव भूतानि कल्पादौ पुन: विसृजामि अहम्। यथा आह मनु:- 'आसीदिदं तमोभूतम' [1] 'सोऽभिध्याय शरीराम्' स्वात्'[2] इति श्रुतिरपि- 'यस्यव्यक्तं शरीरम् [3] इत्यादिका 'अव्यक्त-मक्षरे विलीयते अक्षरं तमसि विलीयते तम: परे देवे एकीभावति' [4] 'तम आसीतमसा गूढमग्रेऽप्रकेतम्' [5] इति च।।7॥

चराचर सभी भूतप्राणी कल्प के अंत में- चतुर्मुख ब्रह्मा के शांत होने के समय मेरे संकल्प से मेरी शरीररूपा, नामरूप के विभाग से रहित 'तम' शब्द से कही जाने वाली (जड) प्रकृति में लीन हो जाते हैं। उन्हीं भूतप्राणियों को कल्प के आदि में मैं फिर रचता हूँ। जैसे कि मनु ने कहा है- 'पहले यह सब तमरूप था',' उस परमेश्वर ने ध्यान करके रचना की' इत्यादि। श्रुति भी कहती है- जिसका शरीर अव्यक्त (प्रकृति) है' , 'अव्यक्त अक्षर में लय होता है (लय होता है, अक्षर तम में लय होता है (और) तम परम देव में एक हो जाता है।' 'पहले तम ही था, पहले सब तमसे ही ढका हुआ था' इत्यादि ॥7॥

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥8॥

प्रकृति के वश से विविश हुए इस समस्त भूत-समुदाय को मैं अपनी प्रकृति का अवलम्बन करके पुन:-पुन: नाना प्रकार से रचता हूँ।॥8॥

स्वकीयां विचित्रपरिणामिनीं प्रकृतिम् अवष्टभ्य अष्टधा परिणमय्य इमं चतुर्विधं देवतिर्यङ्मनुष्य स्थावरात्मकं भूतग्रामं मदीयाया मोहिन्याः गुणमय्याः प्रकृते वशात् अवशं पुनः पुनः काले काले विसृजामि।। 8।।

विविध परिणाम वाली अपनी प्रकृति को अवलम्बन करके-उसके आठ भेद करके इन चार प्रकार के भूत समुदाय को रचता हूँ अर्थात् देव, तिर्यक्, मनुष्य और स्थावर-ऐसे चार प्रकार का भूत-समुदाय, जो कि सबको मोहित करने वाली मेरी गुणमयी प्रकृति के बल से विवश हो रहा है, उसको पुनः-पुनः-समय-समय पर नाना प्रकार से रचता हूँ।। 8।।

एवं तर्हि विषमसृष्टयादीनि कर्माणि नैर्घृण्याद्यापादनेन भगवन्तं बध्नन्ति इति, अत्र आह-

यदि यही बात है तब तो विषम रचना आदि कर्म निर्दयतादि दोषों की उत्पत्ति द्वारा भगवान् को बाँधते होंगे। इस शंका पर कहते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु.1।5
  2. मुनु० 1/8
  3. सु०उ०7
  4. सु० उ० 2
  5. ऋ० स० 8।7।17।3

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
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अध्याय 16 396
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