श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 214

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9॥

अर्जुन! उन कर्मों में उदासीन की भाँति स्थित मुझ आसक्ति रहित को वे (विषम-रचनादि) कर्म नहीं बाँधते।। 9।।

न च तानि विषमसृष्टयादीनि कर्माणि मां निबध्नन्ति मयि नैर्घृण्यादिकं न आपादयन्ति, यतः क्षेत्रज्ञानां पूर्वकृत्यानि एव कर्माणि देवादिविषमभावहेतवः; अहं तु तत्र वैषम्ये असक्तः तत्र उदासीनवद् आसीनः। यथा आह सूत्रकारः-‘वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्’[1] ‘न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात्’[2] इति ।। 9।।

वे विषय-रचनादि कर्म मुझको नहीं बाँधते- मुझमें निर्दयतादि दोषों को उत्पन्न नहीं करते; क्योंकि जीवों के पूर्वकृत कर्म ही देवादि विषम रूपों की रचना में कारण हैं। मैं तो उस विषम-रचना में आसक्तिरहित उदासीन की भाँति स्थित हूँ। जैसा कि ब्रह्म सूत्रकार ने कहा है- ‘भगवान् में विषमता और निर्दयता आदि दोष नहीं है, क्योंकि वे सारी रचना पूर्वार्जित कर्मों के अनुसार करते हैं’ यदि कहो कि यदि कहो कि ‘यह बात सिद्ध नहीं होती, क्योंकि (महाप्रलय में) कर्मों का विभाग नहीं है तो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि कर्म अनादि हैं’।। 9 ।।

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥

अर्जुन! मुझ अध्यक्ष के द्वारा प्रेरित प्रकृति समस्त चराचर जगत को उत्पन्न करती है, उस हेतु से यह जगत् चलता रहता है।। 10।।

तस्मात् क्षेत्रज्ञकर्मानुगुणं मदीया प्रकृतिः सत्यसंकल्पेन मया अध्यक्षेण ईक्षिता सचराचरं जगत् सूयते, अनेन क्षेत्रज्ञकर्मानुगुणमदीक्षणेन हेतुना जगद् विपरिवर्तते; इति मत्स्वाम्यं सत्यसंकल्पत्वं नैर्घृण्यादिदोषरहितत्त्वम् इत्येवमादिकं मम वसुदेवसूनोः ऐश्वरं योगं पश्च। यथा श्रुतिः- ‘अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः।।’ मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्’ [3]इति ।। 10।।

इसलिये मुझ सत्य संकल्प स्वामी के द्वारा प्रेरित मेरी प्रकृति जीवों के कर्मानुरूप चराचर जगत् को रचती है। इस हेतु से-जीवों के कर्मानुसार मेरी प्रेरणा से यह जगत् चल रहा है। इस प्रकार मेरा सबका स्वामी होना, सत्य संकल्प वाला होना और निर्दयता आदि दोषों से रहित होना इत्यादि मुझ वसुदेव नन्दन कृष्ण के ऐश्वर्य योग को तू देख। जैसे श्रुति कहती है- ‘इसलिये मायावती (परमपुरुष) इस विश्व की रचना करता है। उसमें दूसरा (जीव) माया से बँधा रहता है।’ ‘प्रकृति को तो माया समझना चाहिये और महेश्वर को माया का स्वामी समझना चाहिये’ इति।।10।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्र0सू0 2/1/34
  2. ब्र0 सू0 2/1/35
  3. श्वेता0 4/9-10

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
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