श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥6॥
जैसे सर्वत्र गतिवाला महान् वायु आकाश में नित्य स्थित है, वैसे ही समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, तू ऐसा निश्चय कर ।। 6।।
यथा आकाशे अनालम्बने महान् वायुः स्थितः सर्वत्र गच्छति। स तु वायुः निरालम्बनो मदायत्त स्थितिः इति अवश्याभ्युपगमनीयो मया एव धृत इति विज्ञायते तथा एव सर्वाणि भूतानि तैः अदृष्टे मयि स्थितानि मया एव धृतानि इति उपधारय।
जिस प्रकार महान वायु आलम्बन रहित आकाश में स्थित है और सर्वत्र विचरता है। जैसे वह वायु अवलम्बनरहित होने पर भी मेरे आश्रित स्थित है, यह निश्चय करना सर्वथा उचित है अर्थात् मैंने ही उसे धारण कर रखा है, यह समझ में आता है। वैसे ही सभी भूत उनसे अदृश्य मुझ परमेश्वर में स्थित हैं-मैंने ही उन सबको धारण कर रखा है। ऐसा समझ।
यथा आहुः वेदविदः-‘मेघोदयः सागरसन्निवृत्तिरिन्दोर्विभागः स्फुरितानि वायोः। विद्युद्विभंगो गतिरुष्णरश्मे र्विष्णोर्विचित्राः प्रभवन्ति मायाः।।’ इति विष्णोः अनन्यसाधारणानि महाश्चर्याणि इत्यर्थः। श्रुतिः अपि- ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः’ [1] ‘भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः। भीषास्मादगिश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पंचमः’ [2] इत्यादिका ।। 6।।
जैसे कि वेदज्ञ लोग कहते हैं- ‘मेघों का उदय, समुद्र की सीमाबद्ध स्थिति, चन्द्रमा का विभाग (क्षय वृद्धि), वायु की चंचलता, बिजली की चमक, सूर्य की गति, इस प्रकार यह विष्णु भगवान् की विचित्र माया नाना रूपों में प्रकट होती है।’ अभिप्राय यह है कि इस प्रकार बहुत से दूसरों से विलक्षण महान् आश्चर्य विष्णु में होते हैं। श्रुति भी यही कहती है- ‘हे गार्गि! इसी अक्षर ब्रह्म के शासन में सूर्य और चन्द्रमा धारण किये हुए स्थित हैं’ ‘इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भय से सूर्य उदय होता है, इसी के भय से अग्नि, इन्द्र और पाँचवाँ मृत्यु अपना-अपना कार्य करते हैं’ इत्यादि ।। 6।।
स्कलेतरनिरपेक्षस्य भगवतः संकल्पात् सर्वेषां स्थितिः प्रवृत्तिः च उक्ता; तथा तत्संकल्पाद् एव सर्वेषाम् उत्पत्तिप्रलयौ अपि, इति आह-
अन्य किसी की सहायता के बिना केवल भगवान् के संकल्प मात्र से सबकी स्थिति और प्रवृत्ति हो रही है, यह बात कही गयी। अब यह कहते हैं कि सबकी उत्पत्ति और प्रलय भी उसी के संकल्प से होते हैं-
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