श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 211

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

न च मत्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: ॥5॥

तथा वे भूत (भी) मुझमें स्थित नहीं हैं। मेरे ऐश्वर्य-योग को तू देख। मैं भूतों का धारण करने वाला हूँ, पर भूतों में स्थित नहीं हूँ। मेरा मन भूतभावन है।। 5।।

न च मत्स्थानि भूतानि न घटादीनां जलादेः इव मम धारकत्वम्, कथम्? मत्संकल्पेन।

तथा वे भूत भी मुझमें स्थित नहीं हैं- मेरा उनको धारण करना घटादि पात्रों के जल आदि पदार्थों को धारण करने के समान नहीं है। फिर कैसे है? केवल मेरे संकल्प से ही (उनका धारण हो रहा) है।

पश्य मम ऐश्वरं योगम् अन्यत्र कुत्रचिद् असम्भवनीयं मदसाधारणम् आश्चर्यं योगं पश्य।

मेरे ऐश्वर्य-योग को देख-अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं, ऐसे मेरे असाधारण आश्चर्यमय योग की देख!

कः असौ योगः? भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूत भावनाः। सर्वेषां भूतानां भर्ता अहं न च तैः कश्चिद् अपि मम उपकारः। मम आत्मा एव भूतभावनः, मम मनोमयः संकल्प एव भूतानां भावयिता धारयिता नियन्ता च ।। 5।।

वह योग कौन-सा है? (सो बतलाते हैं) मैं भूतों को धारण करने वाला हूँ, पर भूतों में स्थित नहीं हूँ और मेरा मन भूतभावन है। अभिप्राय यह है कि मैं सब भूतों का धारण-पोषण करने वाला हूँ, उनसे मेरा कुछ भी मनोमय संकल्प ही भूतों को उत्पन्न करने वाला, धारण करने वाला और नियमन करने वाला है।। 5।।

सर्वस्य अस्य स्वसंकल्पायत्तस्थितिप्रवृत्तित्वे निदर्शनम् आह-

इस सम्पूर्ण जगत् की स्थिति-प्रवृत्ति अपने संकल्प के अधीन किस प्रकार है, इसमें दृष्टान्त कहते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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