श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण:षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥25॥
धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष तथा दक्षिणायन के छः मास उसमें (गया हुआ) योगी चन्द्रमा सम्बन्धी ज्योति को प्राप्त होकर फिर लौट आता है।।25।।
एतत् च धूमादिमार्गस्थपितृलोकादेः प्रदर्शनम्। अत्र योगिशब्दः पुण्यकर्मसम्बन्धिविषयः।। 25।।
यह (इस श्लोक में आये हुए धूम, रात्रि आदि शब्द) भी धूमादि मार्ग में स्थित पितृ-लोकादि का प्रदर्शक है। और इस श्लोक में आया हुआ ‘योगी’ शब्द पुण्यकर्मा पुरुष का वाचक है।। 25।।
शुक्लकृष्णे गती ह्रोते जगत: शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन: ॥26॥
ये शुक्ल-कृष्ण गति निश्चय ही जगत् ही जगत् में सनातन मानी गयी हैं। एक (गति)-से मनुष्य अनावृत्ति को प्राप्त होता है और दूसरी से पुनः वापस लौट आता है।। 26।।
शुक्ला गतिः अर्चिरादिका कृष्णा च धूमादिका। शुक्लया अनावृत्तिं यान्ति कृष्णया तु पुनः आवर्तन्ते। एते शुक्ल कृष्णे गती ज्ञानिनां विविधानां पुण्यकर्मणां च श्रुतौ शाश्वते मते। ‘तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते तेऽर्चिषमाभिसम्भवन्ति।’[1] ‘अथ य इमे ग्रामे इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसम्भवन्ति’ [2] इति ।। 26।।
अर्चि आदि गति शुक्ल है और धूमादि गति कृष्ण है। शुक्ल गति से गये हुए वापस न लौटने वाले स्थान को प्राप्त करते हैं और कृष्ण गति से गये हुए वापस लौटते हैं। ज्ञानियों की और नाना प्रकार के पुण्यकर्मा पुरुषों की ये शुक्ल और कृष्ण दोनों प्रकार की गतियाँ श्रुति में सदा से मानी गयी हैं। जैसे कि- ‘उसे जो इस प्रकार जानते हैं और जो वन में श्रद्धा के साथ तप करते हुए उपासना करते हैं, वे अर्चि को प्राप्त होते हैं’ इनसे दूसरे ‘जो यहाँ ग्रामों में रहकर इष्टापूर्त और दानादि सकाम पुण्यकर्म करते हैं वे धूममार्ग से जाते हैं’।। 26।।
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