श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृतिं चैव योगिन: ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥23॥
भरतश्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल (मार्ग)- में गये हुए योगी लोग अनावृत्ति को और (जिसमें गये हुए) आवृत्ति को प्राप्त होते हैं, उस काल को अब मैं तुझे कहता हूँ।।23।।
अत्र कालशब्दो मार्गस्य अहःप्रभृति संवत्सरान्तकालाभिमानिदेवताभूयस्तया मार्गोपलक्षणार्थः, यस्मिन् मार्गे प्रयाता योगिनो अनावृत्तिं पुण्यकर्माणः च आवृत्तिं यान्ति, तं मार्ग वक्ष्यामि इत्यर्थः।। 23।।
यहाँ अहःसे लेकर संवत्सरपर्यन्त कालाभिमानी देवताओं का अधिक वर्णन होने के कारण काल शब्द का प्रयोग उपलक्षण के रूप में मार्ग के बदले किया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस मार्ग से गये हुए योगी पुरुष अपुरावृत्ति को वापस न लौटने वाली गति को प्राप्त होते हैं और जिस मार्ग से पुण्यकर्मा पुरुष वापस लौटने वाली गति को प्राप्त होते हैं, वह मार्ग बतलाऊँगा।। 23।।
अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।
यत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना: ॥24॥
अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः महीने उनमें गये हुए ब्रह्मवेत्ताजन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।। 24।।
अग्निः ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्, इति संवत्सरादीनां प्रदर्शनम्।। 24।।
अग्निरूप ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः महीने यह कहना श्रुतिकथित संवत्सर आदि का भी प्रदर्शक है।। 24।।
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