श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
अथ आत्मयाथात्म्यविदः परमपुरुषनिष्ठस्य च साधारणीम् अर्चिरादिकां गतिम् आह; द्वयोः अपि अर्चिरादिका गतिः श्रुतौ श्रुता, सा च अपुरावृत्तिलक्षणा।
अब आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले की और परमपुरुष परमेश्वर में निष्ठा वाले की साधारण अर्चि आदि गति बतलाते हैं। दोनों की ही अर्चि आदि गति होती है। यह बात श्रुति में कही गयी है। और वह गति अपुरावृत्तिरूप है। (उसको प्राप्त पुरुष लौटकर नहीं आते।)
यथा पञ्चतग्निविद्यायां ‘तद्य इत्थं विदुः ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपासते तेऽर्चिषमभिसम्भवन्त्यर्चिषोअहः’ [1] इत्यादौ अर्चिरादिकया गत्या गतस्य परब्रह्मप्राप्तिः अपुरावृत्तिः च उक्ता ‘स एनान्ब्रह्म गमयति’ ‘एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते’ [2]इति।
जैसे कि पंचाग्निविद्या में कहा है- ‘उसे जो इस प्रकार जानते हैं और जो वन में रहकर श्रद्धा के साथ तप करते हुए उपासना करते हैं, वे अर्चि को प्राप्त होते हैं, अर्चि से दिन को प्राप्त होते हैं’ इत्यादि श्रुति-वाक्यों में अर्चि आदि मार्ग से गये हुए पुरुष को ब्रह्म की प्राप्ति और उनकी अपुनरावृत्ति इस प्रकार बतलायी है कि ‘वह इनको ब्रह्म से मिला देता है ‘इसके द्वारा ले जाये हुए इस मनुष्य लोक में लौटकर नहीं आते।’
न च प्रजापतिवाक्यादौ श्रुत परविद्याङभूतात्मप्राप्ति विषया इयम् ‘तद्य इत्थं विदुः’ इति गतिश्रुतिः ‘ये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते’ [3]इति परिवद्यायाः पृथक्श्रुतिवैयर्थ्यात्।
उसे जो इस प्रकार जानते हैं’ यह गतिविषयक श्रुति प्रजापति के वचन आदि में वर्णित पराविद्या की अंगभूत आत्म प्राप्ति के विषय में ही नहीं है; क्योंकि ऐसा मान लेने पर ‘जो वन में रहकर श्रद्धा के साथ तप करते हुए उपासना करते हैं’ इस प्रकार परविद्या को आत्मज्ञान से पृथक् करके कहना व्यर्थ हो जायगा। (अतः यह दोनों के लिये ही लागू है)
पञ्चाग्रिविद्यायां च ‘इति तु पञ्चम्या माहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति’ [4] इति ‘रमणीयचरणाः कपूयचरणाः’ [5] इति पुण्यपापहेतु को मनुष्यादि भावो अपाम् एव भूतान्तरसंस्रष्टानाम् आत्मनस्तु यत्परिष्वंगमात्रम् इति चिदचितोर्विवेकम् अभिधाय ‘तद्य इत्थं विदुः तेऽर्चिषमभिसम्भवन्ति’ [6] ‘इमं मानवमावर्त्तं नावर्तन्ते’ (छा0 उ0 4/15/5) इति विविक्ते चिदचिद्वस्तुनि त्याज्यतया प्राप्यतया च ‘तद्य इत्थं विदुस्तेऽर्चिरादिना गच्छन्ति न च पुनरावर्तन्ते’ इति उक्तम् इति गम्यते।
पंचाग्नि विद्या में भी- ‘पाँचवीं आहुति में जल पुरुष नाम वाले हो जाते हैं’ तथा ‘सुन्दर आचरणों वाले बुरे शरीर पाते हैं’ इत्यादि वचनों से पहले यह विवेचन किया गया है कि पुण्य-पापहेतुक मनुष्यादि भाव पंचभूतों से मिले हुए जल का ही है। आत्मा का तो केवल उससे संगमात्र होता है। इस प्रकार जड-चेतन का विवेक बताकर यह कहा गया है कि ‘उसे जो इस प्रकार जानते हैं, वे अर्चि को प्राप्त होते हैं इस मनुष्य लोक में लौटकर नहीं आते’ इससे मालूम होता है कि पृथक्-पृथक् किये हुए जड-चेतन दोनों में एक को त्याज्य रूप से और दूसरे को प्राप्यरूप से (बतलाने के उद्देश्य से ही) यह कहा गया है कि ‘उसे जो इस प्रकार जान लेते हैं, वे अर्चि आदि मार्ग से जाते हैं और फिर लौटकर नहीं आते।’
आत्मयाथात्म्यविदः परमपुरुष निष्ठस्य च ‘स एनान्ब्रह्म गमयति’ छा0 [7] इति ब्रह्मप्राप्ति वचनात् अचिद्वियुक्तम् आत्मवस्तु ब्रह्मात्मकतया ब्रह्मशेषतैकरसम् इत्यनुसन्धेयम्। तत्क्रतुन्यायाच्च परशेषतैकरसत्त्वं च ‘य आत्मनि तिष्ठात्यास्यात्मा शरीरम्’ [8] इत्यादिश्रुतिसिद्धम्।
आत्मा को यथार्थ रूप से जानने वाले के लिये और परमपुरुष में निष्ठावाले के लिये ‘वह इनको ब्रह्म से मिला देता है’ इस श्रुति में ब्रह्म-प्राप्ति बतलायी गयी है; इस कारण यहाँ यह समझना चाहिये कि जड प्रकृति से पृथक् हुआ आत्मतत्त्व ब्रह्मात्मक है अर्थात् परब्रह्म ही उसका आत्मा है, इसलिये ब्रह्म की शेषता (अधीनता) ही एकमात्र उसका रस है। तत्क्रतु-न्याय से भी यह सिद्ध होता है कि शुद्ध आत्मा ब्रह्म का शेष (अधीन) है और एकमात्र परब्रह्म ही उसका रस है। तथा ‘जो आत्मा में रहने वाला है, जिसका आत्मा शरीर है’ इत्यादि श्रुतियों से भी यह सिद्ध है।
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