श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥27॥
पृथापुत्र अर्जुन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोह को प्राप्त नहीं होता। इसलिये अर्जुन! तू सब कालों में योगयुक्त हो।। 27।।
एतौ मार्गौ जानन् योगी प्रयाणकाले कश्चन न मुह्यति अपि तु स्वेन एव देवयानेन पथा याति। तस्माद् अहरहः अर्चिरादिगति चिन्तनाख्य योगयुक्तो भव।। 27।।
इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मरणकाल में मोहित नहीं होता, किन्तु अपने लिये निश्चित किये हुए देवयान-मार्ग के द्वारा चला जाता है। इसलिये तू प्रतिदिन अर्चि आदि गति के चिन्तनरूप योग से युक्त हो।। 27।।
अथ अध्यायद्वयोदितशास्त्रर्थ वेदनफलम् आह-
अब दो अध्यायों में किये गये शास्त्रोपदेश का अभिप्राय समझने का फल बतलाते हैं-
वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥28॥
वेदों, यज्ञों और तपों में तथा दानों में जो पुण्यफल दिखलाया गया है, योगी इसको (भगवान् के माहात्म्य को) जानकर उस सबको लाँघ जाता है और परम आदिस्थान को प्राप्त होता है।। 28।।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो
नामाष्टमोऽध्यायः।। 8।।
ऋग्यजुः सामाथर्वरूपवेदाभ्यास यज्ञतपोदानप्रभृतिषु सर्वेषु पुण्येषु यत् फलं निर्दिष्टिम् इदम् अध्यायद्वयोदितं भगवन्माहात्म्यं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति एतद्वेदनसुखातिरेकेण तत् सर्व तृणवत् मन्यते। योगी ज्ञानी च भूत्वा ज्ञानिनः प्राप्यं परम् आद्यं स्थानम् उपैति।। 28।।
ऋक्, यजु, साम और अथर्व-इन चारों वेदों के अभ्यास का तथा यज्ञ, तप और दान आदि समस्त पुण्यकर्मों का जो फल बतलाया गया है, उन सबको, मनुष्य इन दो अध्यायों में कहे हुए भगवान् के इस माहात्म्य को समझकर लाँघ जाता है- भगवान् के इस माहात्म्य को जानने के सुख की अधिकता से वह उन सबको तृणवत् समझने लगता है। तथा योगी और ज्ञानी होकर ज्ञानियों को प्राप्त होने योग्य परम आदि स्थान को प्राप्त कर लेता है।। 28।।
इति श्रीमद्धगवद्रामानुजाचार्य विरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये अष्टमोऽध्यायः।। 8।।
इस प्रकार श्रीमान भगवान रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य के हिन्दी भाषानुवाद का आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ।। 8।।
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