श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ॥6॥
कुन्ती पुत्र अर्जुन! जिस-जिस भी भाव को अन्तकाल में स्मरण करता हुआ (मनुष्य) शरीर छोड़ता है, वह सदा (पहले से ही) उस भाव से भावित हुआ उस-उस भाव को ही प्राप्त होता है।। 6।।
अन्ते अन्तकाले यं यं वा अपि भावं स्मरन् कलेवरं त्यजति तं तं भावम् एव मरणानन्तरम् एति। अन्त्यप्रत्ययश्च पूर्वभावितविषय एव जायते।। 6।।
अन्तकाल में मनुष्य जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह मरण के बाद उसी-उसी भाव को प्राप्त होता है और अन्तकाल की प्रतीति भी पहले के अभ्यस्त विषय में ही होती है।। 6।।
यस्मात् पूर्वकालाभ्यस्तविषये एव अन्त्यप्रत्ययो जायते-
जिससे कि पहले अभ्यास किये हुए विषय की ही अन्तकाल में प्रतीति होती है-
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