श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
अधियज्ञः अहम् एव अधियज्ञशब्द निर्दिष्टो अहम् एव, अधियज्ञः यज्ञैः आराध्यतया वर्तमानः, अत्रेन्द्रादौ मम देहभूते आत्मतया अवस्थितः अहम् एव यज्ञैः आराध्य इति महायज्ञादिनित्यनैमित्तिकानुष्ठानवेलायां त्रयाणाम् अधिकारिणाम् अनुसन्धेयम् एतत्।। 4।।
अधियज्ञ मैं ही हूँ, ‘अधियज्ञ’ नाम से कहा जाने वाला मैं स्वयं ही हूँ। अभिप्राय यह है कि यज्ञों के द्वारा आराधन करने योग्य देव का नाम अधियज्ञ है, सो यह बात तीनों ही प्रकार के अधिकारियों को महायज्ञादि नित्य-नैमित्तिक कर्म करते समय समझनी चाहिये कि इन्द्रादि देवता मुझ परमेश्वर के शरीर हैं और मैं उनमें आत्मरूप से स्थित हूँ। अतः मैं ही उन यज्ञों के द्वारा आराध्य हूँ।। 4।।
इदमपि त्रयाणां साधारणम्-
यह भी तीनों के लिये समान हैं-
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय: ॥5॥
जो अन्तकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है वह मेरे भाव को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है।। 5।।
अन्तकाले च माम् एव स्मरन् कलेवरं त्यक्त्वा यः प्रयाति स मद्भावं याति। मम यो भावः स्वभावः तं याति, तदानीं यथा माम् अनुसन्धत्ते तथा विधाकारो भवति इत्यर्थः। यथा आदिभरतादयः तदानीं स्मर्यमाण मृगसजातीयाकाराः सम्भूताः।।5।।
जो भक्त अन्तकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्यागकर जाता है, वह मेरे भाव को प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है कि मेरे स्वाभाव का नाम ‘मम भाव’ है, उसको पाता है- उस समय जैसा मेरा ध्यान करता है, वह वैसे ही (मेरे) आकार वाला बन जाता है, जैसे कि आदि भरत प्रभृति अन्त समय में मृग आदि का स्मरण करने से मृग आदि के समान आकार वाले हो गये।। 5।।
स्मर्तुः स्वविषयसजातीयाकारता पादनम् अन्त्यप्रत्ययस्य स्वभाव इति सुस्पष्टम् आह-
स्मरण करने वाले पुरुष को, वह जिस विषय का स्मरण करता है, वैसे ही आकार का प्राप्त होना अन्तकाल की प्रतीति का स्वभाव है, यह बात भलीभाँति स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
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