श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥22॥
वह (भक्त) उस श्रद्धा से युक्त होकर उस (देवतारूप भगवान् के शरीर)- की आराधना करता है और उससे उन भोगों को प्राप्त करता है, जो मेरे ही द्वारा नियत किये हुए हैं।। 22।।
स तया निर्विघ्नया श्रद्धया युक्तः तस्य इन्द्रादेः आराधनं प्रति ईहते चेष्टते ततः मत्तनुभूतेन्द्रादिदेवताराधनात् तान् एव हि स्वाभिलषितान् कामान् मया एव विहितान् लभते।
वह उस निविघ्र श्रद्धा से युक्त होकर उन इन्द्रादि देवताओं की आराधना के लिये प्रयत्न करता है, उस मेरे शरीर रूप इन्द्रादि देवताओं की आराधना से उन्हीं अपने इच्छित भोगों को, जो मुझसे ही नियत किये हुए हैं, प्राप्त कर लेता है।
यद्यपि आराधनकाले इन्द्रादयो मदीयाः तनवः; तत एव तदर्चनं च मदाराधनम् इति न जानाति, तथापि तस्य वस्तुतो मदाराधनत्वाद् आराधकाभिलषितम् अहम् एव विदधामि।। 22।।
यद्यपि वह आराधना के समय इस बात को नहीं जानता कि ‘इन्द्रादि देवता मेरे (भगवान् के) ही शरीर हैं, इस कारण उनकी पूजा मेरी ही पूजा है, तो भी वह आराधना वस्तुतः मेरी ही है, इसलिये आराधना करने वाले को उसका अभिलषित भोग मैं ही प्रदान करता हूँ’ ।। 22।।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥23॥
परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल अन्त वाला होता है। देवताओं की पूजा करने वाले देतवाओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझको ही पाते हैं।। 23।।
तेषाम् अल्पमेधसाम् अल्पबुद्धीनाम् इन्द्रादिमात्रयाजिनां तदाराधनफलं स्वल्पम् अन्तवत् च भवति। कुतः? देवान् देवयजो यान्ति यत इन्द्रादीन् देवान् तद्याजिनो यान्ति। इन्द्रादयो हि परिच्छिन्न भोगाःपरिमितकालवर्तिनश्च। ततः तत्सायुज्यं प्राप्ताः तैः सह प्रच्यवन्ते।
परन्तु केवल इन्द्रादि देवताओं का पूजन करने वाले अल्पमेधस् मन्दबुद्धिवाले उन मनुष्यों को उस आराधना का फल स्वल्प और अन्त वाला मिलता है। किसलिये? इसलिये कि वे देवताओं की पूजा करने वाले देवताओं को ही पाते हैं। अर्थात् इन्द्रादि देवताओं की पूजा करने वाले उन्हीं को पाते हैं और वे इन्द्रादि देवता परिच्छिन्न भोगों वाले एवं परिमित काल तक जीने वाले हैं; अतः उनके सायुज्य को प्राप्त हुए पुरुष उन्हीं के साथ गिर जाते हैं।
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