श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 184

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य

मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय

मद्भक्ता अपि तेषाम् एव कर्मणां मदाराधनरूपतां ज्ञात्वा परिच्छिन्न फलसङ्गत्यक्त्वा मत्प्रीणनैकप्रयोजनाः माम् एव प्राप्नुवन्ति, न च पुनर्निवर्तन्ते ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’[1] इति वक्ष्यते।। 23।।

परन्तु मेरे भक्त उन्हीं कर्मों को मेरी आराधना के रूप समझकर परिच्छिन्न फल की आसक्ति का त्याग करके केवल एक मेरी प्रसन्नता को ही मुख्य साध्य मानकर करने वाले होते हैं, अतः मुझको ही पाते हैं। फिर कभी संसार में नहीं लौटते। क्योंकि ‘माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ इस प्रकार आगे कहेंगे।। 23।।

इतरे तु सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मम मनुष्यादिषु अवतारम् अपि अकिञ्चित्करं कुर्वन्ति इत्याह-

मेरे भक्तों के अतिरिक्त दूसरे लोग, तो जो अवतार समस्त विश्व को सब प्रकार से आश्रय देने के लिये मनुष्यादिरूपों में होता है, उसको भी ऐसा समझते हैं कि ‘यह कुछ भी नहीं कर सकता।’ अब इसी बात को कहते हैं-

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥24॥

बुद्धिहीन लोग मेरे सर्वोत्तम, अविनाशी परमभावकों को न जानकर ऐसा मानते हैं कि (यह पहले) अप्रकट था, अब प्रकट हुआ है।। 24।।

सर्वेः कर्मभिः आराध्यः अहं सर्वेश्वरः वाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावः परमाकारुण्याद् आश्रितवात्सल्यात् च सर्वसमाश्रयणीयत्वाय अजहत्स्वभाव एव वसुदेवसूनुः अवतीर्ण इति मम एवं परं भावम् अव्ययम् अनुत्तमम् अजानन्तः प्राकृतराजसूनुसमानम् इतः पूर्वम् अनभिव्यक्तम् इदानीं कर्मवशाद् जन्मविशेषं प्राप्य व्यक्तिम् आपन्नं प्राप्तं माम् अबुद्धयो मन्यन्ते अतो मां न श्रयन्ते, न कर्मभिः आराधयन्ति च।। 24।।

जो सभी कर्मों के द्वारा आराधनीय है, जिसका स्वरूप और स्वभाव वाणी तथा मनसे कहने और समझने में नहीं आता, ऐसा मैं सर्वेश्वर परम दयालुता और शरणागतवत्सलता से सबको सब प्रकार से भलीभाँति आश्रय प्रदान करने के लिये अपने स्वभाव शक्ति को लिये हुए ही वसुदेव का पुत्र बनकर अवतीर्ण हुआ हूँ। इस मेरे सर्वोत्तम अविनाशी परम प्रभाव को न जानने वाले बुद्धिहीन मनुष्य, साधारण राजपुत्र के समान ‘इसके पहले यह प्रकट नहीं था, अब कर्मवश जन्मविशेष को पाकर प्रकट हुआ है’, ऐसा मानते हैं। अतएव वे न तो मेरा आश्रय लेते हैं और न कर्मों के द्वारा ही मेरी आराधना करते हैं।। 24।।

कुत एवं न प्रकाश्यते इति, अत्र आह-

किस कारण से आप इस प्रकार (सबके) जानने में नहीं आते- इस विषय में कहते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
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