श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया ॥20॥
उन-उन भोगकामनाओं से हरे गये ज्ञान वाले अपनी प्रकृति के वश होकर अन्य देवताओं की उन-उन नियमों में स्थित होकर शरण ग्रहण करते हैं।। 20।।
सर्वे एव हि लौकिकाः पुरुषाः स्वया प्रकृत्या पापवासनया गुणमय भावविषयया नियता नित्यान्विताः तैः तैः स्ववासनानुरूपैः गुणमयैः एव कामैः इच्छाविषयभूतैः हृतमत्स्वरूप विषयज्ञानाः तत्तत्कामसिद्ध्यर्थम् अन्यदेवताः मद्व्यतिरिक्ताः केवलेन्द्रादिदेवताः तं तं नियमम् आस्थाय तत्तद्देवताविशेषमात्रप्रीणनाय असाधारणं नियमम् आस्थाय प्रपद्यन्ते ता एव आश्रित्य अर्चयन्ते।। 20।।
अपनी प्रकृति से-त्रिगुणमय भावों को विषय करने वाली पापवासनाओं से नित्ययुक्त हुए सभी लौकिक मनुष्य जिनका मत्स्वरूपविषयक ज्ञान अपनी वासनाओं के अनुरूप इच्छा के विषयभूत त्रिगुणमय विभिन्न भोगों के द्वारा हर लिया गया है, वे उन-उन भोगों की सिद्धि के लिये मुझसे अतिरिक्त केवल इन्द्रादि अन्य देवताओं की उन-उन नियमों में स्थित होकर-उन देवता विशेष की प्रीति के लिये ही, जो असाधारण नियम है, उनमें स्थित होकर उनकी शरण लेते हैं अर्थात् उनके आश्रित होकर उनकी पूजा करते हैं। (वे मेरे स्वरूप को नहीं जानते)।। 20।।
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विदधाम्यहम् ॥21॥
जो-जो भक्त जिस-जिस तनु (देवतारूप मेरे शरीर)- को श्रद्धा के साथ पूजना चाहता है, उस-उसकी उस श्रद्धा को मैं ही अचल-स्थिर कर देता हूँ।। 21।।
ता अपि देवताः मदीयाः तनवः ‘य आदित्ये तिष्ठन्यमादित्यो न वेद, यस्यादित्यः शरीरम्’ [1] इत्यादिश्रुतिभिः प्रतिपादिताः मदीयाः तनवः। इति अजानन् अपि यो यो यां यां मदीयाम् इन्द्रादिकां तनं भक्तः श्रद्धया अर्चितुम् इच्छित, तस्य तस्य अजानतः अपि मत्तनुविषया एषा श्रद्धा इति अहम् एव अनुसन्धाय ताम् एव अचलां निर्विघ्नां विदधामि अहम्।। 21।।
वे देवता भी मेरे ही शरीर हैं ‘जो सूर्य में स्थित रहकर उसका शासन करता है, पर जिसको सूर्य नहीं जानता। जिसका सूर्य शरीर है’ इत्यादि श्रुतियों से प्रतिपादित सब देवता मेरे ही शरीर हैं। इस बात को न समझकर भी जो-जो भक्त मेरे जिस जिस इन्द्रादि शरीर की श्रद्धापूर्वक पूजा करना चाहता है उन-उन न जानने वाले भक्तों की उस देवता विषयक श्रद्धा को भी मैं ‘यह श्रद्धा भी मेरे ही शरीर के प्रति है’ यह समझकर उचल निर्विघ्न स्थापन कर देता हूँ।। 21।।
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