श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 135

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥

परन्तु जिनका वह अज्ञान आत्मा के ज्ञान से नष्ट कर दिया गया है, उनका वह स्वाभाविक परम ज्ञान सूर्य के समान (सब वस्तुओं को) प्रकाशित कर देता है।। 16।।

एवं वर्तमानेषु सर्वात्मसु येषाम् आत्मनाम् उक्तलक्षणेन आत्मयाथात्म्योपदेशजनितेन आत्मविषयेण अहरहः अभ्यासाधेयातिशयेन निरतिशयपवित्रेण ज्ञानेन तद्ज्ञानावरणम् अनादिकालप्रवृत्तानन्तकर्म संशयरूपा ज्ञानं नाशितं तेषां तत् स्वाभाविकं परं ज्ञानम् अपरिमितम् असकुंचितम् आदित्यवत् सर्व यथावस्थितं प्रकाशयति। तेषाम् इति विनष्टाज्ञानानां बहुत्वाभिधानाद् आत्मस्वरूपबहुत्वम्-‘न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे’ [1] इति उपक्रमावगतम् अत्र स्पष्टतरम् उक्तम्।

उपर्युक्त स्थिति वाले समस्त जीवात्माओं में से जिन-जिन जीवों का वह ज्ञान को ढकने वाला अनादि काल से प्रवृत्त अनन्त कर्मजनित संशयरूप के उपदेश से उत्पन्न, प्रतिदिन के विशेष अभ्यास के कारण वृद्धि को प्राप्त, आत्मविषयक अत्यन्त पवित्र ज्ञान के द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह अपरिमित-असंकुचित स्वाभाविक परम ज्ञान सूर्य के सदृश समस्त वस्तुओं को यथावत्-रूप में प्रकाशित कर देता है, यहाँ जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है, ऐसे पुरुषों के लिये ‘तेषाम्’ इस बहुवचन का प्रयोग होने से जीवात्मा के स्वरूप की अनेकता (सिद्ध होती है।) जो पहले ‘न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे’ इस उपक्रम से जनायी गयी थी, उसी को यहाँ और भी स्पष्ट रूप में कहा गया है।

न च इदं बहुत्वम् उपाधिकृतं विनष्टाज्ञानानाम् उपाधिगन्धाभावात्। ‘तेषाम् आदित्यवज्ज्ञानम्’ इति व्यतिरेकनिर्देशात् ज्ञानस्य स्वरूपानुबन्धित्वम् उक्तम् आदित्य दृष्टान्तेन च ज्ञातृज्ञानयोः प्रभा प्रभावतोः इव अवस्थानं च। तत एव संसारदशायां ज्ञानस्य कर्मणा संकोचः मोक्षदशायां विकासः च उपपन्नः।। 16।।

यह बहुसंख्यकता उपाधिकृत नहीं मानी जा सकती; क्योंकि जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है, उनमें उपाधि की गन्ध भी नहीं रहती। ‘तेषामादित्यवज्ज्ञानम्’ इस कथन से उनका औरों से पार्थक्य सूचित करके ज्ञान को आत्म स्वरूप से सम्बन्ध रखने वाला बतलाया गया। तथा सूर्य के दृष्टान्त से ज्ञाता और ज्ञान की स्थिति भी प्रभा और प्रभावान् के सदृश बतलायी गयी है। इसी से संसार दशा में कर्मों द्वारा ज्ञान का संकोच और मोक्ष दशा में ज्ञान का विकास होना भी सिद्ध हो जाता है।। 16।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2/12

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
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