श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 136

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: ॥17॥

उस (आत्मा)- में बुद्धिवाले, उसी में मनवाले, उसी में निष्ठावाले और उसी के परायण रहने वाले, ज्ञान के द्वारा धुले हुए पापों वाले पुरुष अपुनरावृत्ति को (आत्मा को) प्राप्त होते हैं।। 17।।

तद्बुद्धयः तथाविधात्मदर्श नाध्यवसायाः, तदात्मानः तद्विषयमनसः, तन्निष्ठाः तदभ्यासनिरताः, तत्परायणाः तद् एव परम् अयनं येषां ते; एवमभ्यस्यमानेन ज्ञानेन निर्धूत प्राचीनकल्मषाः तथाविधम् आत्मानम् अपुनरावृत्तिं गच्छन्ति। यदवस्थाद् आत्मनः पुनरावृत्तिः न विद्यते स आत्मा अपुनरावृत्तिः, स्वेन रूपेण अवस्थितः, तम् आत्मानं गच्छन्ति इत्यर्थः।। 17।।

जो तद्बुद्धि हैं- उपर्युक्त रूप वाले आत्मा का साक्षात्कार करने के लिये ही जिनका दृढ़ निश्चय है, जो तदात्मा हैं- उसी में जिनका मन लगा है, जो तन्निष्ठ हैं- उसी के अभ्यास में पूर्णतया लगे हैं, तथा जो तत्परायण हैं- वह (आत्मसाक्षात्कार) ही जिनका परम आश्रय है, इस प्रकार अभ्यास किये जाने वाले ज्ञान से जिनके समस्त प्राचीन पाप धुल चुके हैं, वे पुरुष उपर्युक्त स्वरूप वाले पुनरावृत्ति रहित आत्मा को प्राप्त हो जाते हैं। अभिप्राय यह कि जिस अवस्था को प्राप्त हुए आत्मा की फिर वहाँ से पुनरावृत्ति नहीं होती, वैसी अवस्था में स्थित आत्मा ‘अपुनरावृत्ति’ अपने स्वरूप में स्थित रहने वाला कहलाता है; उस आत्मस्वरूप को वे प्राप्त हो जाते हैं।। 17।।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ॥18॥

(वे) पण्डितगण विद्याविनयसम्पन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी और और कुत्ते तथा चाण्डाल में भी समदर्शी होते हैं।।18।।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गोहस्तिश्वपचादिषु अत्यन्तविषमाकारतया प्रतीयमानषु च आत्मषु पण्डिताः आत्मयाथात्म्यविदो ज्ञानैकाकारतया सर्वत्र समदर्शिनः। विषमाकारः तु प्रकृतेः, न आत्मनः ‘आत्मा तु सर्वत्र ज्ञानैकाकारतया समः’ इति पश्चयन्ति इत्यर्थः ।।18।।

आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले पण्डितगत विद्या विनययुक्त ब्राह्मण तथा गौ, हाथी और चाण्डालादि, जो अत्यन्त विषमाकार प्रतीत होते हैं, उन सब आत्माओं में ज्ञान की एकाकारता से सर्वत्र समान देखने वाले होते हैं। तात्पर्य यह कि (यह) विषमाकार तो प्रकृति का है, आत्मा का नहीं। ‘आत्मा तो ज्ञान की एकाकारता के कारण सब जगह सम है’ ऐसा वे अनुभव करते हैं।।18।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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