श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 134

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥

न तो भूतप्राणियों के कर्तापन को, न कर्मों को और न कर्मफल के संयोग को ही प्रभु (आत्मा) रचता है; किन्तु (इन सब में) स्वभाव ही प्रवृत्त होता है।। 14।।

अस्य देवतिर्यङमनुष्यस्थावरात्मना प्रकृतिसंसर्गेंण वर्तमानस्य लोकस्य देवाद्यसाधारणं कर्तृत्वं तत्तदसाधारणानि कर्माणि तत्तत्कर्मजन्य देवादि फलसंयोगं च अयं प्रभुः अकर्मश्यः स्वाभाविकस्वरूपेण अवस्थित आत्मा न सृजति, नोत्पादयति।

प्रकृति के संसर्ग से देव, तिर्यक् मनुष्य और स्थावरादि के रूप में वर्तमान इस लोक का जो देवादि शरीरों से सम्बद्ध रखने वाले जो विशिष्ट कर्म हैं तथा उन-उन कर्मों से होने वाले देवादि शरीरों की प्राप्ति रूप जो फलसंयोग हैं, उनको यह प्रभु-कर्मों के वश में न होने वाला अपने स्वाभाविक रूप मे स्थित आत्मा नहीं रचता- नहीं उत्पन्न करता।

कः तर्हि? स्वभावः तु प्रवर्तते, स्वभावः प्रकृतिवासना; अनादिकालप्रवृत्तपूर्वपूर्वकर्मजनित देवाद्याकारप्रकृतिसंसर्गकृततत्तदात्माभिमानजनितवासनाकृतम् ईदृशं कर्तृत्वादिकं सर्वम्, न स्वरूप प्रयुक्तम् इत्यर्थः।। 14।।

तो फिर कौन रचता है? स्वभाव ही प्रवृत्त होता है। यहाँ प्रकृति-सम्बन्धी वासना का नाम स्वभाव है। अभिप्राय यह है कि अनादि काल से प्रवृत्त पूर्व पूर्वकर्मजनित देवादि शरीरों के आकार में परिणत प्रकृति के संसर्ग से उन-उन शरीरों में होने वाला जो आत्माभिमान है, उससे वासना उत्पन्न होती है और उसी वासना के द्वारा किये हुए इस प्रकार के ये सब कर्तृत्वादि भाव हैं। ये आत्मा में स्वरूपतः प्रयुक्त (स्वभाविक) नहीं हैं।। 14।।

नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभु: ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: ॥15॥

यह विभु न तो किसी के पाप को ग्रहण करता है और न किसी के पुण्य को ही। अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है, उसी से जीव मोहित हो रहे हैं।। 15।।

कस्यचित् स्वसम्बन्धितया अभिमतस्य पुत्रादेः पापं दुःखं न आदत्ते, न अपनुदति, कस्यचित् प्रतिकुलतया अभिमतस्य सुकृतं सुखं च न आदत्ते न अपनुदति, यतः अयं विभुः, न क्वाचित्कः, न देवादिदेहाद्यसाधारणदेशः, अत एव न कस्यचित् सम्बन्धी, न कस्यचित् प्रतिकूलः च। सर्वम् इदं वासना कृतम्।

(यह आत्मा) किसी भी अपने सम्बन्धियों के रूप में माने हुए पुत्रादि के पाप को-दुःख को ग्रहण नहीं करता- दूर नहीं करता है और न किसी भी प्रतिकूल-रूप में माने हुए (विरोधी पुरुष)- के सुकृत-सुख को ही ग्रहण करता- दूर करता है। क्योंकि यह विभु है, किसी एक ही देश से सम्बन्ध रखने वाला नहीं है, देवादि के शरीर रूप किसी एक विशेष स्थान में रहने वाला नहीं है; इसीलिये वह न किसी का सम्बन्धी है और न किसी का विरोधी। ये सब (अनुकूल-प्रतिकूल) भाव वासना के ही रचे हुए हैं।

'एवंस्वभावस्य कथम् इयं विपरीतवासना उत्पद्यते? अज्ञानेन आवृंत ज्ञानम् ज्ञानविरोधिना पूर्वपूर्वकर्मणा स्वफलानुभवयोग्यत्वाय अस्य ज्ञानम् आवृंत सङ्कुचितम् , तेन ज्ञानावरणरूपेण कर्मणा देवादिदेहसंयोग: तत्तदात्माभिमानरूपमोह: च जायते। तत: च तथाविधात्माभिमानवासना तदुचितकर्मवासना च वासनातो विपरीतात्माभिमान: कर्मारम्भश्च उपपद्यते॥15 ॥

इस प्रकार के स्वभाव वाले आत्मा में यह विपरीत वासना कैसे उत्पन्न हो जाती है? (इस पर कहते हैं-) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है- ज्ञान के विरोधी पूर्व-पूर्व कर्मों के द्वारा अपने फलों का अनुभव कराने की योग्यता सम्पादन करने के लिये इसके ज्ञान को आवृत संकुचित कर दिया गया है। उस ज्ञानावरणरूप कर्म से इसका देवादि शरीरों से संयोग और उन-उन मे आत्माभिमानरूप मोह भी हो जाता है। उससे फिर वैसे ही आत्माभिमानरूप वासना और उसी के अनुरूप कर्मों की वासना उत्पन्न होती है। उस वासना से विपरीत आत्माभिमान और कर्मों का आरम्भ होता रहता है।। 15।।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिंन सन्तरिष्यसि[1] 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा'[2] 'न हि ज्ञानेन सदृंश पवित्रम्[3] इति पूर्वोक्तं स्वकाले सङ्गमयति-

‘ज्ञानरूपी नौका के द्वारा सब पापों से तर जायगा’ ‘वैसे ही ज्ञानाग्रि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है’ ‘ज्ञान के समान पवित्र (कुछ भी) नहीं है।’ इत्यादि रूप से पहले कहे हुए वचनों की इस समय अनुकूल प्रकरण आने पर संगति उपस्थित करते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 4/36
  2. गीता 4/37
  3. गीता 4/38

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
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अध्याय 17 421
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