श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 133

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥12॥

युक्त पुरुष कर्मफल को त्यागकर नैष्ठि की शान्ति को प्राप्त होता है और अयुक्त पुरुष कामना के द्वारा फल में आसक्त होकर बँध जाता है।।12।।

युक्तः आत्मव्यतिरिक्तफलेषु अचपलः आत्मैकप्रवणः कर्मफलं त्वक्त्वा केवलात्मशुद्धये कर्मानुष्ठाय नैष्ठिकीं शान्तिम् आप्नोति; स्थिराम् आत्मानुभवरूपां निर्वृतिम् आप्नोति। अयुक्तः आत्मव्यतिरिक्तफलेषु चपलः आत्मावलोकनविमुखः कामकारेण फले सक्तः कर्माणि कुर्वन् नित्यं कर्मभिः बध्यते नित्यसंसारी भवति। अतः फलसंगरहित इन्द्रियाकारेण परिणतायां प्रकृतौ कर्माणि सन्न्यस्य आत्मनो बन्धमोचनाय एव कर्माणि कुर्वीत इति उक्तं भवति।। 12।।

युक्त पुरुष-आत्मा से अतिरिक्त अन्य फलों के लिये चञ्चल न होने वला, एक आत्मा में ही लगा हुआ पुरुष कर्म फल का त्याग करके केवल आत्मशुद्धि के लिये कर्माें का अनुष्ठान करके नैष्ठि की शान्ति को पाता है- आत्मानुभवरूप स्थिर तृप्ति को प्राप्त होता है। परन्तु अयुक्त मनुष्य-आत्मा से अतिरिक्त अन्य फलों के लिये चञ्चल रहने वाला आत्मसाक्षात्कार से विमुख मनुष्य कामना वश फल में आसक्त होकर कर्म करता हुआ सदा कर्मों से बँधता है- नित्य संसारी (जन्म-मरणशील) बना रहता है। इसलिये यहाँ यह कहा गया है कि साधक को फलासक्ति से रहित होकर इन्द्रियाकार में परिणत प्रकृति में ही कर्मों का निक्षेप करके केवल आत्मा का बन्धन काटने के लिये ही कर्म करना चाहिये।। 12।।

अथ देहाकारपरिणतायां प्रकृतौ कर्तृत्वसन्न्यास उच्यते-

अब देहाकार में परिणत प्रकृति में कर्तापन के निक्षेप का वर्णन करते हैं-

सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥

अपने वश में रखने वाला देही मन के द्वारा सब कर्माें को नव द्वार वाले शरीर में छोड़कर स्वयं न (कुछ) करता हुआ, न कराता हुआ सुखपूर्वक रहता है।। 13।।

‘आत्मनः प्राचीनकर्ममूलदेह सम्बन्धप्रयुक्तम् इदं कर्मणां कर्तृत्वं न स्वरूपप्रयुक्तम्’ इति विवेकविषयेण मनसा सर्वाणि कर्माणि नवद्वारे पुरे सन्न्यस्य वशी देही स्वयं देहाधिष्ठानप्रयत्नम् अकुर्वन् देहेन न एव कारयन् सुखम् आस्ते।। 13।।

‘आत्मा में यह कर्मों का कर्तापन प्राचीन कर्ममूलक देह सम्बन्ध से ही प्रयुक्त है, स्वरूपतः नहीं है’ इस प्रकार विवेक युक्त मन से सब कर्मों को नौ द्वार वाले (शरीर रूप) पुर में निक्षेप करके वह वशी देही (सर्व प्रकार से अपने को वश में रखने वाला साधक) देहाधिष्ठान द्वारा किये जाने वाले प्रयत्न को न तो स्वयं करता है और न शरीर से ही कराता है (अपने को करने-कराने वाला न मानकर) सुख से रहता है।। 13।।

साक्षाद् आत्मनः स्वाभाविक रूपम् आह-

आत्मा के साक्षात स्वाभाविक रूप का वर्णन करते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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