श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 132

Prev.png

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

ब्रह्मण्याधाय कर्माणिसंङ्गत्यक्त्वा करोति य: ।
लिप्तये न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥10॥

जो मनुष्य कर्मों को ब्रह्म (प्रकृति)-में छोड़कर और आसक्ति को त्यागकर (कर्म) करता है, वह पाप से वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे जल से कमल का पत्ता।।10।।

ब्रह्मशब्देन प्रकृतिः इह उच्यते, ‘मम योनिर्महद्ब्रह्म’ [1] इति हि वक्ष्यते। इन्द्रियाणां प्रकृति परिणामविशेषरूपत्वेन इन्द्रियाकारेण अवस्थितायां प्रकृतौ ‘पश्यन् शृण्वन्’ इत्यादिना उक्तप्रकारेण कर्माणि आधाय फलसङ्गत्वक्त्वा ‘नैव किञ्चित् करोमि’ इति यः कर्माणि करोति, स प्रकृतिसंसृष्टतया वर्तमानः अपि प्रकृत्यात्माभिमानरूपेण सम्बन्धहेतुना पापेन न लिप्यते, पद्यपत्रमिवाम्भसा यथा पद्यपत्रम् अम्भसा संसृष्टम् अपि न लिप्यते, तथा न लिप्यते इत्यर्थः।।10।।

इस श्लोक में ‘ब्रह्म’ शब्द से प्रकृति का वर्णन है। क्योंकि आगे भी ‘मम योनिर्महद्ब्रह्म’ इस प्रकार ब्रह्म के नाम से प्रकृति को कहेंगे। इन्द्रियाँ प्रकृति के ही परिणाम विशेष हैं, इसलिये इन्द्रियाकार में स्थित प्रकृति में ‘पश्यन् शृण्वन्’ इत्यादि श्लोकों द्वारा बतलायी हुई रीति से कर्मों को स्थापित कर (उन्हें प्रकृति के द्वारा किया हुआ मानकर) और फलासक्ति का त्याग करके ‘मैं कुछ भी नहीं करता’ इस भाव से जो कर्म करता है, वह प्रकृति से संसर्गयुक्त होकर कर्म करता हुआ भी प्रकृति में आत्माभिमान रूप बन्धन के हेतुभूत पाप से वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे जल से कमल का पत्र। अभिप्राय यह कि जैसे कमल का पत्र जल के संसर्ग से युक्त रहने पर भी उससे लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह भी लिप्त नहीं होता।। 10।।

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्ग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥

योगी लोग आसक्ति को त्यागकर आत्मशुद्धि के लिये शरीर, मन, बुद्धि और केवल इन्द्रियों से भी कर्म करते हैं ।।11।।

कायमनोबुद्धीन्द्रियसाध्यं कर्म स्वर्गादिफलसङ्ग त्वक्त्वा योगिनः आत्म विशुद्धये कुर्वन्ति, आत्मगतप्राचीन कर्मबन्धनविनाशाय कुर्वन्ति इत्यर्थः।।11।।

योगी लोग शरीर, मन, बुद्धि, और इन्द्रियों से किये जाने वाले कर्म स्वर्गादि फलासक्ति को त्यागकर (केवल) आत्मशुद्धि के लिये करते हैं; भाव यह कि आत्मा में स्थित प्राचीन कर्म-बन्धन का विनाश करने के लिये करते हैं।।11।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 14/3

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः