श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय
सर्वेषां देवादिभूतानाम् आत्मभूत आत्मा यस्य असौ सर्वभूतात्मभूतात्मा; आत्मयाथात्म्यम् अनुसन्दधानस्य हि देवादीनां स्वस्य च एकाकार आत्मा; देवादिभेदानां प्रकृति परिणामविशेषरूपतया आत्माकारत्वा सम्भवात्।
जिसका आत्मा देवादि समस्त भूतप्राणियों का आत्मरूप हो गया है, वही ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ है; क्योंकि जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप का अनुभव करने वाला है, उसी का अपना और देवादि भूतप्राणियों का आत्मा एकाकार होता है; देवादि के भेद (शरीरादि) तो प्रकृति के परिणाम विशेष हैं अतः उनकी आत्माकारता सम्भव नहीं है।
प्रकृतिवियुक्तः सर्वत्र देवादिदेहेषु ज्ञानैकाकारतया समानाकार इति ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ [1] इति अनन्तरमेव वक्ष्यते। स एवंभूतः कर्म कुर्वन् अपि अनात्मनि आत्माभिमानेन न लिप्यते न सम्बध्यते; अतः अचिरेण आत्मानम् आप्नोति इत्यर्थः ।। 7।।
प्रकृति के संसर्ग से रहित आत्मा देवादि समस्त शरीरों में ज्ञान की एकाकारता के कारण समान है; यह बात ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ इस प्रकार इसी अध्याय में कहेंगे। ऐसा वह कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी अनात्मवस्तु में आत्माभिमान करके उनसे लिप्त नहीं होता- उनसे कभी बँधता नहीं; इसलिये वह शीघ्र ही आत्मा को पा जाता है; यह अभिप्राय है।। 7।।
यतः सौकर्यात् शैघ्रयाच्च कर्मयोग एव श्रेयान्, अतः तदपेक्षितं श्रृणु-
क्योंकि सुखसाध्यता और शीघ्रता की दृष्टि से कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। अतः उसके लिये किस बात की अपेक्षा है सो सुन-
नैव किंञ्जित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥9॥
तत्त्व को जानने वाला पुरुष देखता, सुनता, स्पर्श करता, सूँघता, खाता, चलता, सोता, श्वास लेता, बोलता, त्यागता, ग्रहण करता, (आँखें) खोलता और मीचता हुआ भी यह निश्चय करके कि ‘इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं’ ऐसा समझे कि ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’।। 8-9।।
एवम् आत्मतत्त्ववित् श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वागादीनि कर्मेन्द्रियाणि प्राणाः च स्वस्य विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन् अनुसन्दधानो न अहं किञ्जित् करोमि इति मन्येत। ज्ञानैक स्वभावस्य मम कर्ममूलेन्द्रियप्राण सम्बन्धकृतम् ईदृशं कर्तृत्वम्, न स्वरूपप्रयुक्तम्, इति मन्येत इत्यर्थः।। 8-9।।
इस प्रकार आत्मतत्त्व को जानने वाला पुरुष श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ, वागादि कर्मेन्द्रियाँ और प्राण-ये सभी अपने विषयों में बरतते हैं, ऐसी धारणा निश्चय करके यह माने कि मैं कुछ भी नहीं करता अर्थात् यह समझे कि मुझ ज्ञानस्वरूप का यह कर्तापन कर्म के हेतुभूत इन्द्रिय और प्राणों के सम्बन्ध से किया हुआ है, स्वरूपतः प्रयुक्त (स्वाभाविक) नहीं है।। 8-9।।
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