श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय
तद् इदम् आह-‘अजायमानो बहुधा विजायते’ [1] इति श्रुतिः। इतरपुरुषसाधारणं जन्म अकुर्वन् देवादिरूपेण स्व संकल्पेन उक्तप्रक्रियया जायत इत्यर्थः। ‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि’ [2] ‘तदात्मानं सृजाम्यहम्।।’ [3] ‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।’ [4] इति पूर्वापराविरोधाच्च।।6।।
वह (परमेश्वर) न जन्मता हुआ भी बहुत प्रकार से जन्मता है’ यह श्रुति भी यही कहती है। तथा ‘हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ’ ‘उस समय मैं अपने को रच लेता हूँ‘ ’मेरा जन्म-कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो तत्त्व से जानता है’ इत्यादि वचनों में पूर्वा पर विरोध न होने के कारण भी यही अर्थ ठीक है कि श्रीभगवान अन्य साधारण मनुष्यों की भाँति जन्म नहीं लेते, वे पूर्वोक्त प्रकार से अपने संकल्प के द्वारा ही देवादि रूप से जन्म लेते हैं।।6।।
जन्मकालम् आह-
अपने जन्म का समय बतलाते हैं-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥7॥
जब-जब धर्म की ग्लानि और धर्म का अभ्युत्थान होता है, तब-तब ही भारत! मैं अपने को रच लेता हूँ।। 7।।
न कालनियमः अस्मत्सम्भवस्य; यदा यदा हि धर्मस्य वेदेन उदितस्य चातुर्वण्र्यचातुराश्रम्यव्यवस्थया अवस्थितस्य कर्तव्यस्य ग्लानिः भवति, यदा यदा च तद्विपर्ययस्य अधर्मस्य अभ्युत्थानं तदा अहम् एव स्व संकल्पेन उक्तप्रकारेण आत्मानं सृजामि।। 7।।
मेरे प्राकट्य के लिये कोई कालका नियम नहीं है; जब-जब ही वेदोक्त धर्म की, चारों वर्णों और चारों आश्रमों की व्यवस्था पूर्वक स्थित मानव समाज के कर्तव्य की हानि होती है, और जब-जब उस धर्म के विपरीत अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब (तब) मैं स्वयं ही अपने संकल्प से पूर्वोक्त प्रकार से अपने को रच लेता हूँ।।7।।
जन्मनः प्रयोजनम् आह-
जन्म का प्रयोजन बतलाते हैं-
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