श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 104

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा
भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
सम्भवाम्यात्ममायया ॥6॥

मैं अजन्मा, अविनाशीस्वरूप और भूतप्राणियों का ईश्वर रहते हुए ही अपने स्वभाव को साथ लेकर अपनी माया से (अपने संकल्प से) प्रकट होता हूँ।। 6।।

अजत्वाव्ययत्वसर्वेश्वरत्वादिसर्वं पारमेश्वरं प्रकारम् अजहद् एव स्वां प्रकृतिम् अधिष्ठाय आत्ममायया सम्भवामि प्रकृतिः स्वभावः, स्वम् एव स्वभावम् अधिष्ठाय स्वेन एव रूपेण स्वेच्छया सम्भवामि इत्यर्थः।

अजत्व, अव्ययत्व और सर्वेश्वरत्व आदि समस्त परमेश्वरीय स्वभावों को न छोड़ते हुए ही अपनी प्रकृति में स्थिर रहकर मैं अपनी माया से प्रकट होता हूँ। प्रकृति का अर्थ है स्वभाव, अतः कहना यह है कि अपने स्वभाव में स्थित होकर मैं अपने ही (दिव्य) स्वरूप से और अपनी ही इच्छा से प्रकट होता हूँ।

स्वरूपं तु- ‘आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्।’ [1] ‘क्षयन्तमस्य रजसः पराके।’[2] ‘य एषोअन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषः’[3]‘तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयोअमृतो हिरण्मयः।’[4] ‘सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि।’ [5] ‘भारूपः सत्यसंकल्प आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः।’ [6] ‘माहारजनं वासः’ [7] इत्यादिश्रुतिसिद्धम्।

उनका स्वरूप ‘आदित्य के समान वर्णवाले अन्धकार से अत्यन्त दूर’ ‘इस रजोमय क्षणभंगुर लोक से दूर रहने वाले’ ‘जो यह आदित्य में हिरण्मय पुरुष है’ ‘उसमें यह मनोमय (इच्छामय) अमृतमय हिरण्मय पुरुष है’ ‘उस विद्युन्मय (प्रकाशपुञ्ज) पुरुष से सब निमेष उत्पन्न हुए हैं’ ‘ वह प्रकाश रूप, सत्यसंकल्प, आकाशात्मा, सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगन्ध और सर्वरसरूप है’ ‘ (उस परमात्मा का रूप ऐसा है) जैसा हल्दी में रँगा हुआ वस्त्र।’ इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध है।

आत्ममायया आत्मीयया मायया। ‘माया वयुनं ज्ञानम्’ [8] इति ज्ञानपर्यायः अत्र मायाशब्दः। तथा च अभियुक्तप्रयोगः-‘मायया सततं वेत्ति प्राणिनां च शुभाशुभम्’ इति। आत्मीयेन ज्ञानेन आत्म संकल्पेन इत्यर्थः।

‘माया वयुनं ज्ञानम्’ इस वचन के अनुसार यहाँ ‘माया’ शब्द ज्ञान का पर्यायवाची है। आप्तपुरुषों का प्रयोग भी ऐसा ही है-‘भगवान अपनी माया से ही निरन्तर प्राणियों के शुभाशुभ को जानते रहते हैं।’ अतः आत्ममाया से अपनी माया से प्रकट होता हूँ, इस कथन का अभिप्राय यह है कि मैं अपने ज्ञान से अपने संकल्प से प्रकट होता हूँ।

अतः अपहतपाप्मत्वादिसमस्त कल्याणगुणात्मकत्वं सर्वम् ऐश्वरं स्वभावम् अजहद् एव स्वम् एव रूपं देवमनुष्यादिसजातीयसंस्थानं कुर्वन् आत्मसंकल्पेन देवादिरूपः सम्भवामि।

अतएव मैं अपहतपाप्मत्व (सर्वदोष शून्यता) आदि समस्त कल्याणमय गुणों से युक्त होना रूप सम्पूर्ण ईश्वरीय स्वभाव का त्याग न करते हुए अपने ही रूप को अपने संकल्प से देव मनुष्यादि के सदृश आकार में करके उन देवादि के रूपों में प्रकट होता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यजुर्वेद 31/18
  2. साम0 17/1/4/2
  3. छा0 उ0 1/6/6
  4. तै0 उ0 1/6/1
  5. यजुर्वेद 32/2
  6. छा0उ0 3/14/2
  7. बृ0 उ0 2/3/6
  8. वे0 नि0 ध0 व0 22

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
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