श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥8॥
साधुओं का परित्राण करने के लिये, दुष्टों का विनाश करने के लिये और (वैदिक) धर्म की स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।।8।।
साधव उक्तलक्षणधर्मशीला वैष्णवाग्रेसरा मत्समाश्रयणे प्रवृत्ता मन्नामकर्मस्वरूपाणाम् अवाङ्मनस गोचरतया मद्दर्शनाद् ऋते स्वात्मधारणपोषणादिसुखम् अलभमाना अणुमात्रकालम् अपि कल्पसहस्रं मन्वानाः प्रशिथिलसर्वगात्रा भवेयुः इति मत्यस्वरूपचेष्टितावलोकना लापादिदानेन तेषां परित्राणाय तद्विपरीतानां विनाशाय च क्षीणस्य वैदिकधर्मस्य मदाराधनरूपस्य आराध्यस्वरूपप्रदर्शनेन तस्य स्थापनाय च देवमनुष्यादिरूपेण युगे युगे सम्भवामि। कृतत्रेतादियुगविशेषनियमः अपि नास्ति इत्यर्थः।। 8।।
पूर्वोक्त लक्षणों वाले धर्मशील, वैष्णवाग्रणी तथा मेरे समाश्रयण में प्रवृत्त साधु पुरुष मेरे नाम, कर्म और स्वरूप का वाणी तथा मन से भी ग्रहण न हो सकने के कारण मेरे दर्शन प्राप्त किये बिना अपने जीवन के धारण-पोषण में जरा भी सुख न पाते हुए, तथा मेरे दर्शन के बिना क्षणमात्र के समय को भी हजारों कल्पों के समान मानते हुए (मेरे विरह ताप से) सारे अंग अत्यन्त शिथिल हो जाने के कारण नष्ट हो जायँगे; अतः उनको अपने स्वरूप और लीलाओं का दर्शन तथा अपने साथ बातचीत आदि करने का सुअवसर देकर उनका (विरहताप से) परित्राण करने, उनके विरोधी दुष्टों का विनाश करने तथा क्षीण हुए मेरे आराधनरूप वैदिक धर्म की मुझ आराध्यस्वरूप के साक्षात दर्शन के द्वारा सुस्थापना करने के लिये मैं युग-युग में देव-मनुष्यादि के रूप में प्रकट होता हूँ। अभिप्राय यह कि (मेरे प्रकट होने में) सत्ययुग या त्रेता आदि का कोई भी विशेष नियम नहीं है।।8।।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥9॥
मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो तत्त्व से जानता है, अर्जुन! वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता, मुझको ही पाता है।। 9।।
एवं कर्ममूलभूतहेयत्रिगुणप्रकृतिसंसर्गरूपजन्मरहितस्य सर्वेश्वरत्व सर्वज्ञत्वसत्यसंकल्पत्वादिसमस्तकल्याणगुणोपेतस्य साधुपरित्राणमत्समाश्रयणैकप्रयोजनं दिव्यम् अप्राकृतं मदसाधारणं मम जन्म चेष्टितं च तत्त्वतः यो वेत्ति स वर्तमानं देहं परित्यज्य पुनः जन्म न एति माम् एव प्राप्नोति।
इस प्रकार कर्ममूलक और हेयरूपा त्रिगुणात्मिका प्रकृति के संसर्गरूप जन्म से रहित सर्वेश्वरत्व, सर्वज्ञत्व और सत्यसंकल्पत्व आदि समस्त कल्याणमय गणों से समन्वित मुझ परमेश्वर के एकमात्र साधुओं का परित्राण करने-उन्हें अपना समाश्रयण प्रदान करने के उद्देश्य से ही होने वाले मेरे दिव्य- अप्राकृत, असाधारण जन्म और उसके द्वारा की हुई लीलाओं को जो तत्त्व से जानता है, वह इस वर्तमान शरीर को त्यागकर पुनः जन्म को नहीं पाता, मुझको ही प्राप्त होता है।
मदीयदिव्यजन्मचेष्टितयाथात्म्यविज्ञानेन विध्वस्तसमस्तमत्समाश्रयण विरोधिपाप्मा अस्मिन् एव जन्मनि यथोदितप्रकारेण माम् आश्रित्य मदेकप्रियो मदेकचित्तो माम् एव प्राप्रोति।। 9।।
मेरे दिव्य जन्म-कर्म के यथार्थ स्वरूप को भलीभाँति जान लेने से जिसके मेरे समाश्रयण के विरोधी समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं, वह इसी जन्म में पूर्वोक्त प्रकार से मेरी शरण ग्रहण करके, एकमात्र मुझको ही प्रिय मानकर और मुझ में ही एकचित्त वाला होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है।। 9।।
तद् आह-
यह बात कहते हैं-
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