भागवत धर्म मीमांसा3. माया-संतरणतितिक्षा- यानि कष्ट सहन करना। कष्ट सहन करने की आदत होनी चाहिए। जो पिता अपने बच्चों के दुश्मन होते हैं। (पूर्वजन्म के दुश्मन इस जन्म में पिता होकर आए हैं), वे पैसा कमाकर बच्चों के लिए रख देते हैं। उससे बच्चा बेवकूफ बन जाता है। इसलिए बच्चों को विरासत में एक कौड़ी भी नहीं देनी चाहिए। बल्कि उन्हें अच्छी विद्या देनी चाहिए। उन्हें कष्ट करने का मौका देना चाहिए। जो कष्ट करके विद्या प्राप्त करता है, वह जीवन में कभी नहीं हारता। जयप्रकाश नारायण विद्या प्राप्ति के लिए अमेरिका गये थे। यहाँ से पैसा लेकर नहीं गये थे। वहाँ उन्होंने मजदूरी की- होटल में काम किया, खेतों में काम किया, पैसा कमाया और फीस देकर अध्ययन किया। बिल्कुल मामूली मजदूरी की। इसलिए उनके जीवन में पुरुषार्थ की प्रेरणा पायी जाती है।
आर्जवम्- यानि सरलता, सीधा चित्त। चित्त में जरा भी टेढ़ापन न हो, वक्रता न हो। जिस चित्त में सीधापन नहीं, वह ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकता। इसलिए आर्जव आवश्यक बताया। ब्रह्मचर्यम्- हमारे शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य को भी एक बहुत बड़ा साधन माना है भागवत धर्म में भी उसे बड़ा स्थान है। ब्रह्मचर्य चार आश्रमों में एक आश्रम है। जीवन के पहले 24 सालों तक ब्रह्मचर्याश्रम, उसके बाद गृहस्थाश्रम, फिर वानप्रस्थाश्रम और अंत में संन्यासाश्रम। अंतिम दिनों आश्रमों में तो ब्रह्मचर्य होता ही है, बीच का गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य के अभ्यास का आश्रम माना गया है। इस दिशा में महात्मा गांधी ने बहुत अच्छा आदर्श लोगों के सामने रखा है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर भी पति-पत्नी को एक दूसरे की सम्मति से संयम का अभ्यास करना चाहिए। गृहस्थाश्रम संयम के अभ्यास के लिए है। संतान हेतु के सिवा पति-पत्नी भोग में न पड़ें और भाई बहन के समान रहें, यह कोशिश गृहस्थाश्रम में होनी चाहिए। गृहस्थाश्रम ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने की एक पाठशाला की तरह है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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