भागवत धर्म मीमांसा1. भागवत-धर्म
वास्तव में द्वैत है ही नहीं, फिर भी वह भासमान होता है। द्वैत है नहीं, लेकिन ‘अपने से अलग दूसरा कोई है ही नहीं’- यह बात कोई नहीं मानता। फिर भी यदि इतना स्वीकार करें कि हमारा हित किसी के हित के विरुद्ध नहीं है, तो भी भागवत की पकड़ में आ जाएंगे, उसके जाल में फँस जाएंगे। यदि इतना मानेंगे कि हम सबका हित एक दूसरे के हित में है, दूसरे के हित के विरुद्ध नहीं है, तो शोषण (एक्सप्लायटेशन) खतम हो जाएगा। यही उद्देश्य है। एक का हित दूसरे के हित के अविरुद्ध मानना कठिन नहीं। एक परिवार में अनेक लोग होते हैं। कई व्यक्तियों को मताधिकार होता है और हर एक का अलग-अलग मत रहता है। बिहार में तो हमने बड़ा मजा देखा। बड़े-बड़े परिवार होते हैं और एक ही परिवार में एक लड़का कांग्रेसी, दूसरा कम्युनिस्ट, तीसरा सोशलिस्ट, चौथा जनसंघी, तो पाँचवाँ सर्वोदय वाला होता है। यद्यपि घर वालों में इस प्रकार मतभेद होते हैं, लोग भिन्न-भिन्न पार्टियों के होते हैं, फिर भी घर में सब इकट्ठे रहते हैं। वे मानते हैं कि हमारे बीच किसी का हित किसी के विरोध में नहीं है, हमारा घर एक ही है। जिस प्रकार घरवाले समझते हैं कि हमारा सम्मिलित हित है, हित-विरोध नहीं है, उस प्रकार भी हम समझ सकें तो बहुत हो जाएगा। हम ग्रामदान वगैरह विचार समझाते समय यही बताते हैं कि अपना सारा गाँव एक परिवार समझो और एक दूसरे के हित को अच्छी तरह सुरक्षित रखो, तो तुम्हारा भला होगा। ‘मुझसे भिन्न कोई है ही नहीं’- यह भावना पैदा होना तो बहुत बड़ी बात है। वह भी होगी, किंतु प्रथम सम्मिलित हित की भवना बने। उसके बाद धीरे-धीरे वह भी बन जाएगी। यह भासमान द्वैत कैसा है? यह बतलाते हैं।
स्वप्न में अनेक प्रकार के भेद हुआ करते हैं, पर वे सही नहीं होते। जाग जाने पर पता चलता है कि वह सब मिथ्या था, कुछ था ही नहीं। मनोरथों के भी अनेक प्रकार होते हैं। तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं, लेकिन उनके समाप्त होते ही पता चलता है कि वह सारा कल्पना मात्र था। वैसे ही हमने जो भेद मान रखे हैं, द्वैत मान रखा है, वह वस्तुतः है ही नहीं। भेद है ही नहीं, इसका प्रमाण चाहते हो, तो श्मशान में मिलेगा। वैसे तो लोग श्मशान भी अलग-अलग बनाते हैं- हिंदुओं का अलग, सिखों का अलग, पारसियों का अलग। इस तरह भले ही अलग-अलग श्मशान बनाओ, लेकिन इतना पक्का समझ लो कि आख़िर सब ख़ाक ही बनता है। ख़ाक में कोई भेद है नहीं। आप पहचान न सकेंगे कि यह बाबा की ख़ाक है या व्यास जी की, बिलकुल अद्वैत है। वहाँ एकता सिद्ध हो जाती है। हम कितना भी भेद मानें, आखिर सब ख़ाक होने वाला है, इसमें शक नहीं। इसलिए सारे भेद मिटा देने चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.2.38
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