भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 91

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भागवत धर्म मीमांसा

3. माया-संतरण

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(4.3) ऐवं लोकं परं विद्यात् नश्वरं कर्म-निर्मितम्।
सतुल्यातिशय-ध्वंसं यथा मंडल वर्तिनाम॥[1]

इस श्लोक में परलोक का विषय है। लोग सोचते हैं कि यहाँ अच्छा काम करेंगे, तो परलोक में हमें अच्छा स्थान मिलेगा। गुजराती में एक कहावत है : एरणनी चोरी अने सोयनुं दान- निहाई की चोरी की और सुई का दान दिया। दुनिया में हमारा जीवन अच्छा चले, इसलिए बड़ी चोरी करके पूँजी कमाई और परलोक में अपना स्थान कायम रहे, इसलिए सुईभर का दान दिया। यानि दोनों बाजू अपना स्थान कायम करने की कोशिश की।


लेकिन भागवत के इस श्लोक में कहते हैं : ऐवं लोकं परं विद्यात् नश्वरं कर्म निर्मितम् अर्थात जैसा यह लोक है वैसा ही वह है, जिसे आप ‘परलोक’ कहते हैं। दोनों में कोई फ़रक नहीं। माना जाता है कि परलोक में पालकी है, देवता पालकी में बैठकर जाते हैं। वहाँ पैदल चलने की बात ही नहीं। किंतु मैं पूछता हूँ कि पालकी भी किसी के कंधे पर बैठती होगी न? स्वर्ग में कोई देवता पालकी में बैठता होगा तो कोई (देवता) ऐसा भी होगा, जो उस पालकी को कंधे पर उठाता होगा, यानि जो विषमता यहाँ है, वही वहाँ भी है।


कैसा है वह लोक? सतुल्य। वहाँ सब लोग तुल्य हैं, सब देवता ही हैं। कोई काम करने के लिए तैयार ही नहीं। इसलिए यहाँ जो स्पर्धा है, वही वहाँ भी है। सातिशयम्- जो ऊँच नीच भाव यहाँ है, वह वहाँ भी है। सध्वंसम्- यहाँ जैसा नाश है, वैसा वहाँ भी है, यानि वह भी कायम टिकने वाला नहीं है। मतलब यह कि जो तीन दोष यहाँ है, वे ही तीन दोष (होड़, ऊँच-नीच भाव और नश्वरता) वहाँ भी है। यानि परलोक केवल ‘एक्स्टेंशन’- यहाँ के जीवन का विस्तारमात्र है। इससे अधिक कुछ नहीं। जो बुराइयाँ, भलाइयाँ यहाँ होंगी, वे ही वहाँ भी होंगी। इसलिए जो लोग स्वर्ग के लिए तरह-तरह के काम करते हैं, वे अपनी सकामता में ही वृद्धि करते हैं। इस दुनिया के लिए तो हम कामना करते ही थे, अब उसके साथ स्वर्ग के लिए भी कामना करने लगे।


इसलिए भागवत कह रही है कि परलोक की चिंता मत करो, अपने चित्त की शुद्धि हो, इसकी चिंता करो। ‘जपुजी’ में आरंभ में ही कहा है : ‘झूठ कैसे हटेगा और सत्य कैसे बढ़ेगा, यह सोचना चाहिए, न कि यह सोचना कि स्वर्गलोक और परलोक के लिए पूँजी कैसे इकट्ठी करें।’


इन तीन श्लोकों द्वारा तीनों चीजों का निषेध हो गया- स्वर्ग का, संसार में धन आदि प्राप्त करने का और सुख प्राप्ति के लिए किए जाने वाले तरह-तरह के कामों का, यानि सांसारिक काम, सांसारिक प्राप्ति और परलोक में होने वाली प्राप्ति, तीनों का निषेध!


इन तीनों के बारे में सोचें, तभी आगे की बात सध सकती है। क्या सांसारिक काम, सांसारिक वासना प्राप्ति और स्वर्ग प्राप्ति, हमारा चित्त तीनों के बीच कहीं रुका हुआ है? क्या इन तीनों में से कोई चीज चित्त को पसंद है? यदि यह ध्यान में आ जाए कि तीनों चीजें ऊपर-ऊपर की हैं, अंदर की चीज और ही है, तो उसे पाने के लिए क्या करना होगा, इसका विचार कर सकते हैं।

अब उत्तम श्रेय किसमें है, यह बता रहे हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.3.20

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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