भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 88

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भागवत धर्म मीमांसा

2. भक्त लक्षण

'विपदः संतु नः शश्वत् तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत् स्याद् अपुनर्भवदर्शनम्॥

हे जगदगुरो! मुझे बार-बार विपत्ति दीजिए, जिससे आपका स्मरण, आपका दर्शन होता रहे। यही हिंदुस्तान की संपत्ति है। हमें क्या प्राप्त करना है? भगवद-दर्शन, भगवत-स्मरण। इसलिए ऐसी चीज मांग ली, जिससे सतत भगवत स्मरण बना रहे।

तुलसी-रामायण में एक प्रसंग है। राम ने बाली को बाण मारा। बाली देह छोड़ने की तैयारी में है। वह प्रभु से पूछता है कि ‘मैंने आपका कौन सा अपराध किया, जो आपने मुझे इस तरह मारा?’ भगवान जवाब देते हैं : ‘मैं तो तुम पर बड़ा प्रसन्न हूँ। मात्र तुमने एक गलत काम किया था, इसलिए मुझे यह करना पड़ा। लेकिन अब भी चाहो, तो तुम्हें जीवन दे सकता हूँ।’ तब बाली कहता है : ‘मैं बेवकूफ नहीं, जो मरते समय आपके प्रत्यक्ष दर्शन के बिना मर जाऊँ। मेरा बड़ा भाग्य है कि मरते समय आपका दर्शन हो रहा है।’ फिर भगवान ने बाली को अपने धाम वैकुण्ठधाम में गति दी। यही भारत की शक्ति है। चीनी लेखक लिन यु टाँग ने लिखा है : इंडिया इज़ ए गॉड इंटाक्सिकेटेड लैंड- भारत को भगवान का नशा है।

ऐसा भक्त भगवत चरण से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होता। भगवान का चरण कौन सा है? मूर्ति का चरण तो दीखेगा, पर भगवान का चरण कैसे दीखेगा? वेदों में भगवत चरण का वर्णन आया है : पादोऽस्य विश्वा भूतानि- यह सारी सृष्टि, जो सामने दीख रही है, भगवान का चरण है इसलिए भगवद्भक्त भगवान के चरणों की सेवा में लगे रहते हैं, जनता की सेवा करते हैं। जन-सेवा को भगवत-चरण-सेवा मानते हैं। यह दृष्टि आ जाए, तो एक क्षण भी विस्मृति न होगी।

अकुंठस्मृतिः- शब्द बड़ा सुंदर है। कितना भी बड़ा आघात आ जाए, स्मरण कुंठित नहीं होता, टूटता नहीं- इसमें उतना आश्चर्य नहीं, जितना आश्चर्य इसमें है कि सुखों का आघात होने पर भी वह नहीं टूटता। प्रायः लोग सोचते हैं कि मनुष्य दुःखी है तो उसे उसमें से छुड़ाया जाय। किंतु उन्हें इसका ख़्याल नहीं कि दुःख की तरह सुख से भी मनुष्य को छुड़ाना चाहिए। जितना खतरा दुःख में है, सुख में उससे बहुत अधिक खतरा है। इसलिए सुखी मनुष्य को भी जागृत करना चाहिए कि ‘भाई, भगवत-स्मरण से अलग हो रहे हो, खतरा है। सावधान!’


ध्यान रखें कि सुख और दुःख दोनों में खतरा है। मान लीजिए, हम बैलगाड़ी में बैठकर जा रहे हैं। यदि बैलगाड़ी समतल रास्ते पर चल रही है तो गाड़ीवाला सो जाए, तो भी गाड़ी धीरे-धीरे चलती रहेगी। किंतु चढ़ाव आने पर मुश्किल हो जाएगा, बैल आगे नहीं बढ़ेंगे और जोर लगाकर गाड़ी को ढकेलना होगा। उसमें खतरा है। उतार आएगा तो उसमें भी खतरा है। बैल जोरों से दौड़ने लगेंगे, काबू में नहीं रहेंगे और गाड़ी गड्ढे में जा गिरेगी। दूसरे शब्दों में सुख है उतार, तो दुःख है चढ़ाव। सुख में सारी इंद्रियाँ लालायित रहती हैं और गिर जाती हैं। दुःख में मनुष्य आगे नहीं बढ़ता, उसकी हिम्मत पस्त हो जाती है। इसलिए चढ़ाव और उतार दोनों में खतरा है। समतल रास्ता ही सुरक्षित होता है।

किंतु जो वैष्णव-शिरोमणि है, उनका चित भगवत-स्मरण से एक क्षण भी दूर नहीं होता। जहाँ चित्त में भगवत-स्मरण है, चित्त एकाग्र है, वहाँ काम, क्रोध, मत्सर, अहंकारादि टिक नहीं पाते। हमें बचपन में कहा गया गया था कि राम-नाम के सामने भूत टिक नहीं सकता। फिर होड़ लगती कि ‘कौन श्मशान में जाकर खूँटा गाड़ आता है?’ राम-नाम के सामने भूत कैसे टिकेंगे? यह श्रद्धा की बात है। इसके सामने कोई विकार टिक नहीं पाता। विकारों के पीछे पड़ने के बजाय, ‘यह हटाओ, वह हटाओ’ आदि निषेधक कार्यक्रम के बजाय विधायक कार्यक्रम अच्छा होगा कि ‘भगवत स्मरण करो।’ नहीं तो ‘छोड़ना है, छोड़ना है’ कहते-कहते जो छोड़ना हो, वही पक्का हो जाता है। इसलिए भगवत-स्मरण पकड़ लो तो विकार यों ही खतम हो जाएंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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