भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 85

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भागवत धर्म मीमांसा

2. भक्त लक्षण

उत्तम भक्त के लक्षण

तीन प्रकार के भक्तों का वर्णन हो गया। अब भगवान उनमें से उत्तम भक्त के विशेष लक्षण बता रहे हैः

'(3.4) गृहीत्वाऽपींद्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति
विष्णोर् मायां-इदं पश्यन् स वै भागवतोत्तम:॥ [1]

जो इंद्रियों से विषयों का ग्रहण करते हुए भी चित्त में हर्ष और द्वेष पैदा होने नहीं देता, उसे उत्तम भक्त मानना चाहिए। अनुकूल विषयों से प्रसन्नता और प्रतिकूल विषयों से खेद, यह वह नहीं जानता। वह समझता है कि अनुकूल प्रतिकूल सभी विषय विष्णु की माया है। एक कहेगा ‘तरकारी में नमक अधिक है’, तो दूसरा कहेगा ‘फीका है।’ यह सारा इंद्रियों की आदत पर निर्भर है। इसीलिए आश्रम में हम लोग तरकारी में नमक डालते ही नहीं थे। जिसे चाहिए, वह ऊपर से ले लेता था। आख़िर तय किया कि नमक की आवश्यकता ही नहीं और उसका उपयोग ही छोड़ दिया। बंदर तरकारी तोड़-तोड़कर खाते हैं, तो कहाँ नमक की राह देखते हैं? मतलब, यह सारा इंद्रियों की आदत पर निर्भर है। भगवान कहते हैं कि इसलिए हर्ष खेद से दूर रहो। हमें धीरे-धीरे उत्तम भक्त के दर्जे में ले जाने का भगवान का यह तरीका है।

'(3.5) देहेंद्रिय-प्राण-मनो-धियां यो
जन्माप्यय-क्षुद्-भय-तर्ष-कृच्छैः।
संसारदर्मैर् अविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर् भागवतप्रधानः।।[2]

  • स्मृतया हरेः भागवतप्रधानः- भगवान के भक्त को हरि का स्मरण हमेशा रहता है।
  • इसलिए संसारधर्मेः अविमुह्यमानः- वह संसार- धर्मों से मोहित नहीं होता। यानि संसार धर्मों का उस पर असर नहीं पड़ता। उसने एक बख़्तर पहन लिया है। कौन सा?
  • ‘स्मृत्या हरेः’- हरि का स्मरण।

जन्म और अप्ययन यानि मरण संसार धर्म है। कुछ लोग बाबा को सालों तक पत्र नहीं लिखते। लेकिन तीन प्रसंगों पर उनके पत्र अवश्य आते हैं- किसी की मृत्यु पर, जन्म पर और शादी पर। जन्म हुआ तो सब प्रसन्न होते हैं, मृत्यु पर रोने लगते हैं। ज्ञानदेव महाराज ने वर्णन किया है कि लड़का पैदा होता है, तो वह बेचारा रोता है, लेकिन बाकी सारे खुशी मनाते हैं।

यह निश्चित है कि जन्म-मृत्यु होना ही है, और वह होता है, त उस समय रोना ही है। पर कहीं तो मैंने देखा कि मृत्यु पर किराये से रोनेवाले बुलाते हैं। यानि वह एक विधि ही मानी गयी। शास्त्रकार तो कहता है कि ‘कोई मर जाय और आप रोते हैं तो मरने वाले की गति में बाधा आती है।’ लेकिन कोई इसका ख्याल नहीं करता। आत्मा की अमरता के विषय में हिंदुस्तान में जितना प्रचार हुआ है, उतना कहीं नहीं, और मरने पर रोना-धोना भी यहीं सबसे अधिक चलता है किंतु जिसने हरि-स्मरण रूपी बख़्तर पहन लिया है, उसे दुःख होता ही नहीं।


क्षुधा और तृषा भी संसार धर्म बताए गये हैं। सामान्य मनुष्य क्षुधा-तृषा से पीड़ित होता है, पर उत्तम भक्त नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि उसे भूख ही नहीं लगती। उत्तम भक्त को भूख लगती है, प्यास भी लगती है, लेकिन क्षुधा-तृषा की भावना से वह अभिभूत नहीं होता। उसे भय भी नहीं रहता। भय की भावना सर्वत्र फैली हुई है। इसलिए भय को भगवान ने संसार धर्म बताया है। इन संसार धर्मों का प्रभाव उत्तम भक्त पर नहीं होता, क्योंकि उसने हरि-स्मरण का बख़्तर पहन लिया है।

ये धर्म किसके हैं? देह के और इंद्रियों के भी। आत्मा के साथ उनका कोई संबंध नहीं। फिर सवाल आयेगा कि ऐसा है, तो फिर दुःख क्यों करते हो? भय क्यों करते हो? भय है तो देह के साथ है, दुःख है तो मन के साथ, इंद्रियों के साथ है। फिर तुम रोते क्यों हो? मतलब यह कि इन भावनाओं का प्रभाव नहीं होने देना चाहिए।


आज दुनिया में डर के कारण जुल्मी लोग अपना काम करवा लेते हैं। ‘गीता-प्रवचन’ में एक राक्षस की कहानी है। एक राक्षस ने एक मनुष्य को पकड़ लिया और उससे अखंड काम लेता रहा। मनुष्य जरा रुक जाता तो राक्षस कहता : ‘काम कर, नहीं तो तुझे खा डालूँगा। मनुष्य डर-डरकर काम करता रहा। आख़िर एक दिन जब राक्षस ने ‘खा डालूँगा’ कहा, तो मनुष्य ने भी कहा : ‘खा लो’। तब राक्षस चुप हो गया। उसके ध्यान में आ गया कि इसे खा लूँगा, तो काम करने वाला कोई नहीं रहेगा।

सारांश

मनुष्य जब तक डरता रहा, तभी तक उसे राक्षस के जुल्म के नीचे दबना पड़ा। इसलिए ध्यान में रखना चाहिए कि डर से हम कोई गलत काम न करें। इतने गंभीर दर्शन की पहचान न होगी, तो मानवता नीचे गिरेगी। आज पेट के लिए मनुष्य चाहे जो काम करने के लिए तैयार होता है। इससे मानवता नीचे गिरती है। लेकिन उत्तम भक्त ऐसा कभी नहीं करेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.2.48
  2. 11.2.49

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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