भागवत धर्म मीमांसा4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधकतुकाराम महाराज समाधि के सामने पेड़ के नीचे खड़े हो गये और साष्टांग (दण्डवत्) प्रणाम किया। इस बीच पेड़ पर जो पक्षी बैठे थे, वे एकदम उड़ गये। तुकाराम महाराज दुःखी हुए कि मेरे डर से पक्षी उड़ गये! वे वहीं शान्ति से खड़े हो गये – पेड़ के समान शान्त! कुछ समय बाद पक्षी उनके कंधे पर आ बैठे। तब उनको बहुत आनन्द हुआ। जब तक भगवान का दर्शन नहीं होगा, तब तक ऐसी साम्यावस्था नहीं आयेगी। अवधीं भूते साम्या आलीं। देखिलीं म्यां कैं होती। जब सभी भूत साम्यावस्था में पहुँच गये हैं, ऐसा अनुभव आयेगा तभी भगवान का दर्शन होगा। तुकाराम महाराज कहते हैं कि जो भी मुझे मिलता है, वह मैं ही हूँ, ऐसा मुझे लगता है। साम्यावस्था का यह जो अनुभव है, उसी में आनन्द है। नानात्व का भास नहीं होगा, मेरा ही रूप सब भूतों में दिखाई देगा, तो आनन्द आयेगा। बात कठिन दीखती है, लेकिन प्रयत्न करने पर निश्चय ही सधने जैसी है।
बिसर गई सब तात पराई। जब ते साधु संगति मोहि पाई॥ नानक कह रहे हैं कि मेरे लिए अब न कोई वैरी है, न कोई सगा। सार यह कि इस व्यापक अनुभूति में महान आनन्द भरा पड़ा है। हमें उस आनन्द को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। हमें अपने घर से बाहर देखने की कोशिश करनी चाहिए। घर में प्रेम है। लेकिन जैसे पानी एक ही जगह पर रहने से सड़ जाता है, वैसे ही प्रेम घर में क़ैद हुआ तो सड़ जाता है। उससे काम-वासना बढ़ती है। वह यदि परिवार के बाहर बहता रहे तो निश्चय ही व्यापक अनुभूति आयेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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