ज्ञानेश्वरी पृ. 820

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन: ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥74॥

संजय ने कहा-“हे कुरुराज, आपके भ्रातृ-पुत्र ने भगवान् से जो कुछ कहा, वह उन्हें अत्यधिक मृदु जान पड़ा। वास्तव में पूर्व सागर तथा पश्चिम सागर इत्यादि नाम ही भिन्न हैं और नहीं तो उन दोनों सागरों का जल एकदम एक-सा है और इसी प्रकार अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण का भेद सिर्फ शरीर के कारण ही दृष्टिगत होता है, पर उनके संवाद में यह भेद कहीं लेशमात्र भी नहीं रह जाता। यदि दर्पण से भी स्वच्छ दो वस्तुएँ एक-दूसरे के सम्मुख की जायँ तो जैसे वे एक-दूसरे में अपना ही स्वरूप देखेंगी, ठीक वैसे ही अर्जुन भी स्वयं को श्रीकृष्णसहित श्रीकृष्ण की मूर्ति में देखने लगा और श्रीकृष्ण को भी अर्जुन की मूर्ति में उसके सहित स्वयं अपना स्वरूप दृष्टिगत होने लगा। श्रीदेव जिस अंग में और जिस जगह पर स्वयं को भी तथा अपने भक्त अर्जुन को भी देखने लगे, उसी अंग में तथा उसी जगह पर भक्त अर्जुन को भी देव श्रीकृष्ण दृष्टिगोचर होने लगे और अब, जबकि उन दोनों के अलावा कोई अन्य रह ही नहीं गया था, उन लोगों ने क्या किया? बस वे दोनों एकाकार हो गये और जब इस प्रकार द्वैतभाव समाप्त हो गया, तब भला प्रश्न और उत्तर का प्रसंग कहाँ से आ सकता था। जिस समय कोई भेद ही बाकी नहीं रह गया, उस समय फिर सम्भाषण का सुख कहाँ से आ सकता था? इस प्रकार द्वैतभाव के रहनेपर भी सम्भाषण के समय जिनमें द्वैतभाव नहीं रह गया था, उन दोनों का सम्भाषण मैंने श्रवण किया।

यदि दो दर्पण एक-दूसरे के सम्मुख रख दिये जायँ तो क्या कभी यह परिकल्पना की जा सकती है कि उनमें से कौन किसे देखता है? अथवा यदि किसी प्रज्वलित दीप के समक्ष कोई दूसरा प्रज्वलित दीप रख दिया जाय तो यह किस प्रकार जाना जा सकता है कि उनमें कौन-सा दीप किससे प्रकाश की याचना करता है? अथवा यदि सूर्य के सम्मुख कोई अन्य सूर्य उदित हो तो इस बात का निर्णय भला किस प्रकार किया जा सकता है उनमें से कौन-सा सूर्य प्रकाश प्रदान करने वाला है और कौन-सा प्रकाशित होने वाला है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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