श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
यदि कोई इस बात का निर्णय करने लगे तो स्वयं निश्चय ही स्तब्ध हो जाता है। इस प्रकार श्रीकृष्ण तथा अर्जुन उस सम्भाषण में एकदम एक-से हो गये थे। यदि दो दिशाओं से आकर जल के दो प्रवाह परस्पर मिल जायँ और ऊपर से लवण भी आकर उनमें मिल जाय तो क्या वह लवण उन दोनों जल-प्रवाहों को अवरुद्ध कर सकता है अथवा वह भी पलभर में उन दोनों प्रवाहों के साथ मिलकर एकाकार हो जायग? ठीक इसी प्रकार जब मैं उस संवाद में इस प्रकार एकाकार होने वाले भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का अपने हृदय में ध्यान करता हूँ, तो मेरी दशा भी उसी लवण की भाँति हो जाती है।” संजय इन शब्दों को पूरा-पूरा मुख से निकाल भी न पाया था कि इतने में सात्त्विक भाव ने आकर उसकी संजयत्ववाली स्मृति नष्ट कर दी अर्थात् मैं सजंय हूँ उसे इस बात का ध्यान भी न रह गया। उसे ज्यों-ज्यों रोमांच होता आता था, उसका शरीर भी त्यों-त्यों संकुचित होता जाता था। उसी स्तम्भित अवस्था में उसकें शरीर से जो स्वेद निकल आया था, उसके कारण उसके देह का कम्प भी अत्यधिक हो गया था। उसकी आँखें अद्वैतानन्द का अनुभव होने के कारण भर आयीं। उसके नेत्रों में वे प्रेम के आँसू नहीं थे, बल्कि मानो उसके उदर में नही समा रहे थे तथा गला अवरुद्ध हो गया था और यही कारण है कि श्वास के साथ शब्दार्थ मिलकर एक हो गये थे। किंबहुन, आठों सात्त्विकभाव एकदम प्रकट हो गये और संजय की कुछ ऐसी विचित्र दशा हो गयी कि उसके मुख से शब्द ही न निकल पाता था। उस समय संजय मानो श्रीकृष्णार्जुन-संवाद-सुख का चतुष्पथ बन गया था, पर इस सुख का स्वभाव ही इस प्रकार का है कि वह स्वत: शान्त हो जाता है। अतएव संजय भी अतिशीघ्र शान्त हो गया और फिर उसे अपने देह की स्मृति हो आयी। |
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