ज्ञानेश्वरी पृ. 802

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥65॥

हे वीर शिरोमणि, तुम अपने बाह्याभ्यन्तर सभी प्रकार के व्यवहारों का विषय मुझ सर्वव्यापक को बना दो। जैसे आकाश के समस्त अंगों में वायु मिली हुई रहती है, ठीक वैसे ही तुम मुझमें मिलकर रहो। किंबहुना तुम अपने मन को केवल मेरा ही मन्दिर बनाओ और अपने श्रवणेन्द्रियों को मेरे ही श्रवण से ठीक तरह भरो। आत्मज्ञान से निर्मल हो चुके जो सन्तजन हैं, वे ही मेरी छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं; अत: जैसे कामिनी अपने पति की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखती है, ठीक वैसे ही तुम्हारी दृष्टि भी इन सन्तों की ओर देखे। मैं समस्त वस्तुओं का निवासस्थान हूँ, अतएव मेरे शुद्ध नाम की रट तुम अपनी जिह्वा के साथ लगाकर उसे जीवित रखो। तुम इस प्रकार की व्यवस्था करो जिसमें तुम्हारे हाथों के द्वारा काम करना तथा पैरों के द्वारा चलना आदि सब कुछ मेरे ही लिये हो।

हे पाण्डव, अपने अथवा पराये लोगों के साथ तुम जो उपकाररूपी यज्ञ करोगे, उसी से तुम मेरे सच्चे याज्ञिक हो सकोगे; पर एक-एक बात मैं तुमको कहाँ तक बतलाऊँ! तुम स्वयं में सेवक-भाव की स्थापना करो तथा शेष लोगों को मद्रूप मानकर उन्हें सेव्य समझो। इससे जीवमात्र की ओर से तुम्हारे मन का द्वेष मिट जायगा और तुम इसी ज्ञान-भावना से विनम्रता ग्रहण कर सकोगे कि सर्वत्र मैं-ही-मैं हूँ और इससे तुम्हें मेरा पूर्ण आश्रय प्राप्त होगा। फिर इस संसार में किसी तीसरी वस्तु का नाम ही न रह जायगा और हम-तुम सचमुच एकान्त में मिल सकेंगे। फिर चाहे कैसी ही अवस्था क्यों न उत्पन्न हो, तो भी तुम्हारा और मेरा आपकी सहवास उपभोग करने के लिये ही अवशिष्ट रह जायगा तथा हम लोगों को सुख स्वतः बढ़ने लगेगा और हे पार्थ, तीसरेपन का झगड़ा जिस अवस्था में नहीं रह जाता, तुम अन्त में उसी अवस्था में मद्रूप होकर मिल जाओगे। जिस समय जल का अवसान हो जाता है, उस समय जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब को अपने बिम्ब के साथ मिलकर एक होने से भला कौन रोक सकता है?


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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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