ज्ञानेश्वरी पृ. 801

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


सर्वगुह्यतमं भूय: श्रृणु मे परमं वच: ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥64॥

अब तुम ध्यान देकर मेरे निर्मल वचन को एक बार फिर सुनो। कोई इस प्रकार की बात नहीं है जो कहने योग्य होने के कारण ही मैं कह रहा हूँ तथा जो श्रवण योग्य होने के कारण ही तुम्हें श्रवण करना चाहिये, बल्कि इस कथन के विषय में तुम यही जान लो कि तुम्हारा भाग्योदय ही हुआ है। हे धनंजय, कच्छपी की दृष्टिमात्र से ही उसके बच्चों को पोषक दूध मिलता है तथा चातक के गृह में स्वयं आकाश ही जल भरने का काम करता है। अत: जिस जगह पर जो व्यवहार नहीं हो सकता, उस जगह पर भी उस व्यवहार का फल भोगने को मिलता है। यदि दैव अनुकूल हो तो कौन-सा लाभ कहाँ नहीं मिल सकता? यदि साधारणतः देखा जाय तो यह रहस्य-ज्ञान इस प्रकार का है कि द्वैत का बखेड़ा त्यागकर अद्वैत यानी एक तत्त्व के गृह में ही यह भोगने को मिल सकता है और हे सुहृद्, जिस प्रेम में कोई बनावटीपना नहीं होता, उस प्रेम का जो विषय होता है, उसके बारे में यह बात जान लेनी चाहिये कि वह स्वयं अपने अलावा अन्य कुछ भी नहीं होता।

हे धनंजय, हमें अपना मुँह देखने के लिये जिस दर्पण का प्रयोग करना होता है, उस दर्पण को हम स्वयं ही स्वच्छ करते हैं, पर यह स्वच्छता हम उस दर्पण के लिये नहीं करते, अपितु स्वयं के लिये ही करते हैं। इसी प्रकार हे पार्थ, मैं तुम्हें निमित्त बनाकर ये सब बातें स्वयं अपने ही लिये कर रहा हूँ; क्योंकि तुम्हीं बतलाओ कि क्या मुझमें और तुझमें किसी प्रकार का भेदभाव है? और यही कारण है कि मैं अपना आन्तरिक रहस्य तुमको बतला रहा हूँ, कारण कि तुम्हीं मेरे अन्तरंग में निवास करने वाले हो और एकनिष्ठ भक्तों के लिये मैं पागल रहता हूँ। हे पाण्डुसुत, लवण अपना सर्वस्व जल को अर्पण करते ही स्वयं को भूल जाता है और सर्वांश में जलरूप होने में वह रत्तीभर भी लज्जित नहीं होता। ठीक इसी प्रकार जब तुम मुझसे किसी तरह का छिपाव करना नहीं जानते, तब मैं तुमसे कोई बात किस प्रकार छिपाकर रख सकता हूँ? इसीलिये जिस रहस्य के सम्मुख जगत् के शेष सब रहस्य एकदम प्रकट हो जाते हैं, वह अपना अत्यन्त गुप्त रहस्य-वचन तुम्हें बतला रहा हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो![1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1341-1352)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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