ज्ञानेश्वरी पृ. 791

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने पिछले अध्यायों में आत्माप्राप्ति करने के अनेक उपाय सविस्तार बतलाये हैं, पर फिर भी श्रीहरि ने यह सोचा कि हो सकता है कि यह विषय एक बार श्रवण करने पर शीघ्र ही अर्जुन की समझ में ठीक तरह से न आया हो और यही कारण है कि एक बार बतलाया हुआ सिद्धान्त शिष्य के अन्तःकरण में स्थिर करने के उद्देश्य से संक्षिप्त रीति से भगवान् पुनः कह रहे हैं तथा साथ ही गीता की समाप्ति निकट आ पहुँचने के कारण यहाँ यह भी दिखलाया गया है कि उसके आरम्भ और अन्त में एक सूत्रता है। यह दिखलाने का एकमात्र कारण यह है कि ग्रंथारम्भ तथा ग्रंथान्त के मध्य में अनेक प्रकार के प्रश्न उपस्थित होने के कारण अनेक सिद्धान्तों का स्पष्ट विवेचन किया गया है। इसके पूर्वा पर के सन्दर्भों पर अच्छी तरह से ध्यान न देने के कारण कोई यह भी कह सकता है कि वे समस्त सिद्धान्त ही इस शास्त्र के प्रमुख तथा सारभूत सिद्धान्त हैं। यही कारण है कि उन समस्त सिद्धान्तों को एक महासिद्धान्त के साँचे में ढालकर गीतारम्भ की उसकी समाप्ति के साथ एकवाक्यता की गयी है। अविद्या का नाश इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है और मोक्ष का सम्पादन ही उस अविद्या नाश का फल है और इन दोनों का ही साधन ज्ञान है। इस विशाल ग्रन्थ में एकमात्र यही विषय अनेक प्रकार से विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया गया है। अब यही विवेचन यहाँ बहुत थोड़े-से शब्दों में होने को है। यही कारण है कि फल हस्तगत होने पर ही उसको पाने के उपायों का फिर से वर्णन करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण प्रवृत्त हुए हैं।

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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