श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने पिछले अध्यायों में आत्माप्राप्ति करने के अनेक उपाय सविस्तार बतलाये हैं, पर फिर भी श्रीहरि ने यह सोचा कि हो सकता है कि यह विषय एक बार श्रवण करने पर शीघ्र ही अर्जुन की समझ में ठीक तरह से न आया हो और यही कारण है कि एक बार बतलाया हुआ सिद्धान्त शिष्य के अन्तःकरण में स्थिर करने के उद्देश्य से संक्षिप्त रीति से भगवान् पुनः कह रहे हैं तथा साथ ही गीता की समाप्ति निकट आ पहुँचने के कारण यहाँ यह भी दिखलाया गया है कि उसके आरम्भ और अन्त में एक सूत्रता है। यह दिखलाने का एकमात्र कारण यह है कि ग्रंथारम्भ तथा ग्रंथान्त के मध्य में अनेक प्रकार के प्रश्न उपस्थित होने के कारण अनेक सिद्धान्तों का स्पष्ट विवेचन किया गया है। इसके पूर्वा पर के सन्दर्भों पर अच्छी तरह से ध्यान न देने के कारण कोई यह भी कह सकता है कि वे समस्त सिद्धान्त ही इस शास्त्र के प्रमुख तथा सारभूत सिद्धान्त हैं। यही कारण है कि उन समस्त सिद्धान्तों को एक महासिद्धान्त के साँचे में ढालकर गीतारम्भ की उसकी समाप्ति के साथ एकवाक्यता की गयी है। अविद्या का नाश इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है और मोक्ष का सम्पादन ही उस अविद्या नाश का फल है और इन दोनों का ही साधन ज्ञान है। इस विशाल ग्रन्थ में एकमात्र यही विषय अनेक प्रकार से विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया गया है। अब यही विवेचन यहाँ बहुत थोड़े-से शब्दों में होने को है। यही कारण है कि फल हस्तगत होने पर ही उसको पाने के उपायों का फिर से वर्णन करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण प्रवृत्त हुए हैं। |
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