ज्ञानेश्वरी पृ. 792

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्‌व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।56।।

भगवान् ने कहा-“हे वीर शिरोमणि! वह क्रमयोगी अपनी स्थिर भक्ति के सहयोग से ‘मैं’ हो जाता है तथा मुझमें अटलरूप से निवास करता है। स्वकर्मरूपी निर्मल पुष्पों से मेरी पूजा करता है तथा उस पूजा से मिलने वाले प्रसाद से उसे ज्ञाननिष्ठा का लाभ होता है। जब यह ज्ञाननिष्ठा हाथ आती है, तब मेरी भक्ति का उत्कर्ष होता है और उस भक्ति से मिलने वाली सम अवस्था की शान्ति से वह सुखी होता है। विश्व को आलोकित करने वाला जो ‘मैं’ हूँ, उस ‘मैं’ को यानी स्वयं की ही आत्मा को जो सर्वत्र भरा हुआ समझता है और तदनुसार आचरण करता है जो ठीक वैसे ही बुद्धि, वाणी तथा शरीर में सिर्फ मेरा ही आश्रय ग्रहण करता है, जैसे लवण अपना निरालापन त्यागकर जल का आश्रय ग्रहण करता है अथवा हवा जैसे चतुर्दिक् चक्कर लगाना त्यागकर आकाश में स्तब्ध होकर रहती है, यदि उसके द्वारा कोई निषिद्ध कर्म भी हो जाय तो भी जैसे गंगा से मिलने पर मार्ग का गँदले जल का प्रवाह तथा महानदी का प्रवाह-ये दोनों मिलकर एक ही हो जाते हैं। चन्दन तथा सामान्य काष्ठ में तभी तक भेद रहता है, जब तक उनमें आग नहीं लगती। खोटे तथा खरे सोने का भेद तभी तक रहता है जब तक पारस के स्पर्श से वे दोनों एकरूप नहीं हो जाते। ठीक इसी प्रकार शुभ और अशुभ के भेद का आभास तभी तक होता है, जब तक मेरे सर्वव्यापी प्रकाश की प्राप्ति न हो। रात और दिन के द्वन्द्व का भास तभी तक होता है, जब तक हम लोग सूर्य के गाँव में प्रवेश न करें। इसीलिये हे किरीटी! मेरी प्राप्ति होते ही उसके सारे कर्मों का लोप हो जाता है तथा वह सायुज्य मोक्ष के पद पर आरूढ़ हो जाता है। उसे मेरा वह अविनाशी पद प्राप्त होता है, जिसका देश, काल अथवा स्वभाव से कभी क्षय नहीं होता। किंबहुना, हे पाण्डुसुत! जहाँ मेरी यानी प्रत्यक्ष आत्मा के प्रसन्नता की प्राप्ति होती हो, वहाँ भला ऐसा कौन-सा लाभ है जो प्राप्त नहीं हो सकता।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1246-1259)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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