ज्ञानेश्वरी पृ. 760

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे अर्जुन! इस प्रकार जो अपने विहित कर्मों को करता है, वह मोक्ष के इस पार वाले तट तक आ पहुँचता है। अकरणी और निषिद्ध कर्मों के साथ उसका कोई रिश्ता ही नहीं होता और यही कारण है कि संसार सम्बन्धी बखेड़े उसके मोक्ष-मार्ग में बाधक नहीं होते। कुतूहलवश भी वह कभी कामिक कर्मों को स्वीकार नहीं करता और फिर चाहे चन्दन की बेड़ी क्यों न हो, तो भी वह उसमें अपना पाँव नहीं फँसाता; कारण कि चन्दन की बेड़ी होने से ही क्या होता है! अन्ततः है तो वह बेड़ी ही! वह सारा नित्य कर्म फलेच्छा त्यागकर करता है तथा वे सारे-के-सारे कर्म भी वह ईश्वर को अर्पण करता रहता है और यही कारण है कि वह मोक्ष की सीमा तक पहुँच सकता है। इस प्रकार वह इस संसार के शुभाशुभ बखेड़ों से छूट जाने के कारण वैराग्यरूपी मार्ग से मोक्ष के द्वार पर जा धमकता है। जो समस्त सौभाग्य की परिपूर्णता है, जिसमें मोक्ष की उपलब्धि सुनिश्चित है, जिसमें कर्मकाण्ड का एकदम अवसान हो जाता है, जिसकी मोक्षफल देने की जवाबदेही होती है और जो पुण्यकर्मरूपी वक्ष का फल है; साधक पुरुष उस वैराग्य भौंरे की तरह अनायास ही और सहज भाव से पैर रखता है।

हे पाण्डव! तुम यह बात अच्छी तरह से समझ लो कि यह वैराग्यभाव ऐसा अरुणोदय है जो इस बात की सूचना देता है कि अतिशीघ्र ही आत्मज्ञानरूपी सूर्योदय होने वाला है और उस साधक को यही वैराग्यभाव प्राप्त होता है अथवा यह वैराग्य मानो एक ऐसा दिव्यांजन है जिसके लगाने मात्र से आत्मज्ञानरूपी गुप्त खजाना अच्छी तरह दृष्टिगोचर होने लगता तथा मिल जाता है। केवल इतना ही नहीं, वह साधक यह दिव्यांजन स्वयं ही अपने नेत्रों में लगा लेता है। इस प्रकार हे पाण्डुसुत! इन विहित कर्मों को करने से साधक को मोक्ष प्राप्ति की योग्यता प्राप्त हो जाती है। हे पार्थ! जीव को यह विहित कर्म ही आश्रय प्रदान करने वाले हैं तथा इन कर्मों को करना ही मेरे परमात्मस्वरूप की वास्तविक सेवा है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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