श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे पतिपरायणा स्त्री अपने पति के संग समस्त प्रकार के सुख भोगती है, अपितु यों कहना चाहिये कि जैसे उसकी सम्पूर्ण तपस्या पति के निमित्त होती है अथवा जैसे बालक के लिये माता के अलावा जीवन का अन्य कोई आश्रय ही नहीं होता और इसलिये उसका उचित कर्तव्य यही होता है कि वह अपनी माता की ही सेवा में तल्लीन रहे अथवा जैसे मत्स्य यद्यपि एकमात्र जल के ही विचार से गंगा में निवास करता है, तो भी वह गंगा-मार्ग से सागर में पहुँच जाता है और उसे स्वतः समस्त तीर्थों में रहने का फल भी प्राप्त हो जाता है, ठीक वैसे ही यदि इस विचार से विहित कर्मों को किया जाय कि इन कर्मों के करने के अलावा हमारे लिये अन्य कोई गति ही नहीं है, तो हमारा सारा भार स्वतः ईश्वर पर जा पड़ता है। हे किरीटी! जिसके लिये जो विहित कर्म है वे ईश्वर को ही इष्ट होते हैं और यही कारण है कि उन कर्मों को करने से ईश्वर स्वतः प्राप्त हो जाता है। जो स्त्री किसी के अन्तःकरण की कसौटी पर खरी उतरने के कारण उसकी प्रिय हो जाती है, वह चाहे पहले की सेविका ही क्यों न रही हो, पर फिर भी वह उसकी स्वामिनी हो जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी स्वामी की हर तरह से उसकी इच्छानुसार सेवा करता है उसे उसका स्वामी अपने मस्तक पर उठा लेता है अर्थात् उसका अत्यधिक आदर करता है। वही सच्ची और उत्कृष्ट सेवा कहलाती है जिस सेवा में स्वामी के समस्त मनोरथ पूर्ण किये जाते हैं। हे पाण्डव! इसके अलावा चाहे और जो सेवा हो, वह सब एकमात्र व्यापार ही है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (885-913)
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