ज्ञानेश्वरी पृ. 737

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

यह विचार नहीं किया जाता कि हमारी सामर्थ्य कितनी है, यह कार्य करने में कितनी झंझटे उठानी पड़ेंगी और अन्ततः इससे हमारी फलसिद्धि ही क्या होगी। ऐसी समस्त बातों का विचार अविवेक के साथ पैरोंतले कुचला जाता है और तब ऐसे कर्म करने का आयोजन किया जाता है। आग पहले अपने ही रहने के स्थान को जलाकर आस-पास फैलती है और समुद्र पहले अपनी ही मर्यादा डुबाकर ऊपर उछलता है। फिर वह आग या वह समुद्र छोटे-बड़े का कुछ भी विचार नहीं करता, आगे-पीछे कुछ भी नहीं देखता तथा टेढ़े-मेढ़े एवं सीधे-साधे मार्गों को एकाकार करता जाता है तथा उसका यह क्रम अनवरत जारी रहता है। ठीक इसी प्रकार भले-बुरे आदि का बिना विचार किये तथा अपने और पराये समस्त लोगों के धुर्रे उड़ाते हुए जिन कर्मों को किया जाता है, उनके विषय में निश्चितरूप से यह जान लेना चाहिये कि वे तामस कर्म हैं। हे अर्जुन! इन त्रिगुणों के कारण कर्म किस प्रकार त्रिविध होते हैं, इसका स्पष्ट विवेचन मैंने तुम्हें अभी-अभी बतला दिया है। अब इन समस्त कर्मों को करने वाला तथा इनके कर्तृत्व का अहंकार करने वाला जो जीव होता है, वह भी त्रिविधता प्राप्त करता है। जैसे एक ही व्यक्ति ब्रह्मचर्य इत्यादि चार आश्रमों में रहकर पृथक्-पृथक् चार प्रकार का दृष्टिगोचर होता है, ठीक वैसे ही कर्मों की त्रिविधता के कारण कर्ता में भी त्रिविधता आ जाती है। अत: इन त्रिविध कर्ताताओं में जो प्रथम श्रेणी का सात्त्विक कर्ता है, अब मैं उसके सम्बन्ध में बतलाता हूँ, तुम दत्तचित्त होकर सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (611-630)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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