ज्ञानेश्वरी पृ. 736

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥25॥

वे समस्त कर्म तामस कर्म कहलाते हैं जो कर्म मानो निन्दा का घर ही होते हैं तथा जिनके कारण मानो निषेध का जन्म सार्थक होता है। जल पर खींची हुई लकीर भाँति जिन कर्मों का आचरण करने पर पीछे कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता अथवा जैसे काँजी का मंथन करना, राख में फूँक मारना, तेल निकालने के लिये कोल्हू में रेत डालकर पेरना अथवा भूसा फटकना, आकाश में कोई चीज भोंकना अथवा वायु को कैद करने के लिये जाल बिछाना इत्यादि समस्त काम एकदम निष्फल होते हैं तथा व्यर्थ जाते हैं, ठीक वैसे ही जो कर्म करने पर एकदम ही व्यर्थ जाते हैं और जिनका कुछ भी फल नहीं होता अथवा यदि वे कर्म व्यर्थ न भी जायँ तो भी मनुष्यदेह-सरीखी बहुमूल्य वस्तु को खर्च करके जिन कर्मों का आचरण करने के कारण संसार-सुख का क्षय होता है, वे समस्त कर्म तामस कोटि के होते हैं। अथवा जैसे कमलों पर काँटेदार जाल फेंकने से उस जाल के काँटे भी टूटते हैं और कमलदल भी फट जाते हैं अथवा जैसे दीपक के साथ द्वेषभाव के कारण पतंगे उस पर टूट पड़ते हैं तथा अपना ही अंग जलाकर राख कर देते हैं और दीपक को बुझाकर दूसरों के लिये अँधेरा कर देते हैं, ठीक वैसे ही चाहे अपना सर्वस्व व्यर्थ ही विनष्ट क्यों न हो जाय, यहाँ तक कि अपने देह का भी नाश क्यों न हो जाय, पर फिर भी जिन कर्मों के द्वारा जानबूझकर दूसरों का अहित किया जाता है, जिन कर्माचरण से उस मक्खी की दुष्टता का स्मरण हो आता है जो अपने खाने-पीने की समस्त चीजें तो मनुष्यों से ही पाती है, पर फिर भी अपने व्यवहार से जो मनुष्य को वमन का क्लेश पहुँचाती है, वे सब तामस कोटि के कर्म होते हैं, और ये समस्त कर्म बिना इस बात का विचार किये हुए ही सम्पन्न किये जाते हैं कि इन्हें सम्पन्न करने की सामर्थ्य हममें है भी अथवा नहीं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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