ज्ञानेश्वरी पृ. 690

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

तदनन्तर, भगवान् ने कहा-“यदि राहगीर अपने साथ धन-दौलत रखना त्याग दे तो मानो वह चोर-डाकुओं से होने वाले भय का नाश कर डालता है। ठीक इसी प्रकार काम्य कर्मों को त्याग देना भी मानो कामना को ही निर्मूल कर डालना है। चन्द्र या सूर्य को ग्रहण लगने के समय जो कर्म करने पड़ते हैं अथवा माता-पिता की मृत्यु-तिथि पर जो कर्म किये जाते हैं अथवा किसी अतिथि के पधारने पर उसके स्वागतार्थ जो कर्म करने पड़ते हैं, उन सब कर्मों को नैमित्तिक जानना चाहिये। जैसे वर्षा काल में गगन मेघों से आच्छन्न हो जाता है अथवा वसन्त काल का आगमन होने पर वृक्षों में बहुत सी कोपलें निकलती हैं तथा वन की शोभा द्विगुणित हो जाती है अथवा जैसे तारुण्यावस्था में देह में एक विशेष प्रकार की मोहकता आ जाती है अथवा चन्द्ररश्मियों के कारण जैसे चन्द्रकान्तमणि द्रवित होने लगती है अथवा सूर्योदय होने पर जैसे कमल प्रस्फुटित होते हैं और इन सब उदाहरणों में जैसे कारण-विशेष से उसी बात की वृद्धि होती है जो वास्तव में मूल में होती है और मूल बात से भिन्न अन्य कोई नयी बात नहीं उत्पन्न होती, ठीक वैसे ही जब कोई निमित्त नित्य कर्म में आ लगता है, तब उसी कर्म को नैमित्तिक नाम से पुकारते हैं। जो कर्म नित्यशः प्रातः, मध्याह्न और सायं-इन तीनों कालों में करने पड़ते हैं, पर जैसे नेत्रों में दृष्टि कहीं बाहर से लाकर लगायी हुई नहीं होती अथवा बिना सम्पादन किये ही पैरों में चलने की स्वाभाविक सामर्थ्य भरी होती है; दीपक जैसे तेज स्वाभाविकरूप से विद्यमान रहता है अथवा बाह्य सुगन्ध लगाये बिना ही जैसे चन्दन में स्वाभाविक सुगन्ध भरी रहती है, ठीक वैसे ही जिन कर्मों में स्वभावतः अधिकार का रूप होता है और जिन्हें किये बिना मनुष्य का पिण्ड नहीं छूट सकता, हे पार्थ! नित्य कर्म उन्हीं कर्मों का नाम है। इस प्रकार मैंने तुम्हें नित्य और नैमित्तिक कर्मों के बारे में बतला दिये हैं। ये नित्य और नैमित्तिक कर्म करने अत्यावश्यक हैं और यही कारण है कि कुछ लोग इन्हें बाँझ (निष्फल) कहने लगते हैं पर जैसे भोजन-सेवन करने से भूख मिटती है, ठीक वैसे ही नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों से सभी ओर से फलों की उपलब्धि होती है। जिस समय खोटा सोना स्वर्णकार की अँगीठी में पड़ता है उस समय उसमें स्थित अशुद्ध अंश जल जाता है और सोना पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। ठीक इसी प्रकार कर्मफल भी होते हैं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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