ज्ञानेश्वरी पृ. 689

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा: ॥2॥

जिन कर्मो। का अनुष्ठान सिर्फ कामना के विस्तार के कारण ही होता है, जिनमें अश्वमेध इत्यादि विशाल यज्ञ सम्पन्न किये जाते हैं, तड़ाग तथा कूप इत्यादि खुदवाये जाते हैं, बाग-बगीचे लगवाये जाते हैं, भूमिदान तथा बड़े-बड़े गाँव दान किये जाते हैं और नाना प्रकार के व्रतादि किये जाते हैं। आशय यह कि ऐसे जितने सकाम और इष्टापूर्त कर्म किये जाते हैं, वे सब कर्ता के लिये बन्धनकारक होते हैं तथा उन कर्ताओं को अपने फल भोगवाते हैं। हे धनंजय! जैसे देहरूपी गाँव में आकर रहने पर जन्म-मृत्यु के झमेलों का अवसान नहीं किया जा सकता अथवा जैसे ललाट पर लिखा हुआ लेख मिटाया नहीं जा सकता अथवा देह की त्वचा का कालापन और गोरापन धोकर नहीं हटाया जा सकता, ठीक वैसे ही कामिक कर्मों का फल भोगने से भी मनुष्य किसी प्रकार बच नहीं सकता। जैसे ऋण से कोई व्यक्ति तब तक उऋण नहीं हो सकता, जब तक वह ऋण चुका न दिया जाय; वैसे ही इस तरह के कर्मफल भोग के लिये मानों धरना देकर बैठ जाते हैं और उन्हें बिना भोगे पिण्ड नहीं छूट सकता अथवा हे पाण्डुसुत! यदि प्रत्यक्षरूप से कामना न की जाय और यों ही सहज भाव से ऐसे कामिक कर्म किसी के द्वारा सम्पन्न हो जायँ तो भी जैसे भुथरे बाणों के साथ यों ही खेल-खेल में लड़ने पर भी व्यक्ति क्षतिग्रस्त हो जाता है अथवा जैसे अनजान में मुँह में डाला हुआ गुड़ भी मधुर लगता है; जैसे राख समझकर अंगारे पर रखा हुआ पैर अंगारे से जल जाता है, वैसे ही बन्धकत्व भी काम्य कर्मों की एक स्वाभाविक सामर्थ्य है और इसीलिये जो मुमुक्षुजन हों, उन्हें कभी मनोविनोद में भी उन कर्मों को नहीं करना चाहिये। सिर्फ यही नहीं, हे पार्थ! काम्य कर्मों को विषवत् त्याग देना चाहिये। इसी प्रकार के त्याग को संन्यास नास से जाना जाता है।” ये ही सब बातें उस समय सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने बतायी थीं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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