श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
जिन कर्मो। का अनुष्ठान सिर्फ कामना के विस्तार के कारण ही होता है, जिनमें अश्वमेध इत्यादि विशाल यज्ञ सम्पन्न किये जाते हैं, तड़ाग तथा कूप इत्यादि खुदवाये जाते हैं, बाग-बगीचे लगवाये जाते हैं, भूमिदान तथा बड़े-बड़े गाँव दान किये जाते हैं और नाना प्रकार के व्रतादि किये जाते हैं। आशय यह कि ऐसे जितने सकाम और इष्टापूर्त कर्म किये जाते हैं, वे सब कर्ता के लिये बन्धनकारक होते हैं तथा उन कर्ताओं को अपने फल भोगवाते हैं। हे धनंजय! जैसे देहरूपी गाँव में आकर रहने पर जन्म-मृत्यु के झमेलों का अवसान नहीं किया जा सकता अथवा जैसे ललाट पर लिखा हुआ लेख मिटाया नहीं जा सकता अथवा देह की त्वचा का कालापन और गोरापन धोकर नहीं हटाया जा सकता, ठीक वैसे ही कामिक कर्मों का फल भोगने से भी मनुष्य किसी प्रकार बच नहीं सकता। जैसे ऋण से कोई व्यक्ति तब तक उऋण नहीं हो सकता, जब तक वह ऋण चुका न दिया जाय; वैसे ही इस तरह के कर्मफल भोग के लिये मानों धरना देकर बैठ जाते हैं और उन्हें बिना भोगे पिण्ड नहीं छूट सकता अथवा हे पाण्डुसुत! यदि प्रत्यक्षरूप से कामना न की जाय और यों ही सहज भाव से ऐसे कामिक कर्म किसी के द्वारा सम्पन्न हो जायँ तो भी जैसे भुथरे बाणों के साथ यों ही खेल-खेल में लड़ने पर भी व्यक्ति क्षतिग्रस्त हो जाता है अथवा जैसे अनजान में मुँह में डाला हुआ गुड़ भी मधुर लगता है; जैसे राख समझकर अंगारे पर रखा हुआ पैर अंगारे से जल जाता है, वैसे ही बन्धकत्व भी काम्य कर्मों की एक स्वाभाविक सामर्थ्य है और इसीलिये जो मुमुक्षुजन हों, उन्हें कभी मनोविनोद में भी उन कर्मों को नहीं करना चाहिये। सिर्फ यही नहीं, हे पार्थ! काम्य कर्मों को विषवत् त्याग देना चाहिये। इसी प्रकार के त्याग को संन्यास नास से जाना जाता है।” ये ही सब बातें उस समय सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने बतायी थीं। |
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