श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इसके अलावा जिस समय तक रज तथा तम-इन दोनों का नाश नहीं होता, उस समय तक मनुष्य की श्रद्धा भी अत्यन्त निम्न कोटि को रहती है। फिर वह श्रद्धा ब्रह्म नाम पर किस प्रकार हो सकती है? ऐसी दशा में जैसे शस्त्रों का आलिंगन करना, रस्सी पर दौड़ना अथवा नागिन के साथ खेलना जानलेवा होता है, ठीक वैसे ही श्रद्धारहित समस्त कर्म भी अत्यन्त विकट हैं। और अनन्त जन्म-मरण के सदृश दुःसाध्य संकट इन कर्मों में ही हैं। यदि प्रारब्धवशात् मनुष्य के द्वारा अच्छे कर्म सम्पन्न हो जायँ तो उसमें ज्ञान पाने की योग्यता आ जाती है, अन्यथा उन्हीं कर्मों के द्वारा मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है। कर्म के यथावत् सम्पन्न होने के रास्ते में न जाने कितनी ही अड़चने हैं। ऐसी स्थिति में कर्मनिष्ठजनों को भला कब मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है अत: यह कर्म करने का बन्धन तोड़ डालना चाहिये, सब कर्मों को छोड़ देना चाहिये, और सब प्रकार से दोषरहित संन्यास ही ग्रहण करना चाहिये। जिनमें कर्म बाधा के भय की वार्ता भी कहीं सुनायी नहीं देती, जिनमें एकमात्र योग से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है, जो ज्ञान को आवाहन करने के मानों मंत्र ही हैं जो ज्ञानरूपी फसल को पैदा करने के लिये मानो उत्तम क्षेत्र ही हैं, अथवा जो ज्ञान को आकर्षित करने वाले सूत्र के मानों तन्तु ही हैं, वे दोनों संन्यास तथा त्याग हैं। इन्हीं दोनों का अनुष्ठान करने से जगत् का नाता टूट जाता है। अतः अब भगवान् से इन दोनों का स्वरूप स्पष्ट करने के लिये प्रार्थना करना समीची है। अपने मन में यही बात सोचकर जिस समय पार्थ ने भगवान् श्रीकृष्ण से त्याग और संन्यास का स्वरूप स्पष्ट करने की प्रार्थना की और इस विषय में उनसे प्रश्न किया, उस समय भगवान् ने उसे जो उत्तर दिया, वही इस अध्याय में दिया गया है। इस प्रकार एक अध्याय दूसरे अध्याय को जन्य और जनकभाव से उत्पन्न करता है। |
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