ज्ञानेश्वरी पृ. 685

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

अब मैं अपनी समझ के अनुसार यह बतलाता हूँ कि सत्रहवें अध्याय के बाद इस अठारहवें अध्याय का प्रकरण किस प्रकार उत्पन्न हुआ। जैसे गंगा-यमुना दोनों नदियों का जल जलत्व की दृष्टि से एकरूप ही होता है, पर धारा की दृष्टि से दोनों ही नदियाँ पृथक्-पृथक् दृष्टिगत होती हैं अथवा स्त्री-पुरुषरूप दोनों के वर्तमान रहते हुए भी अर्द्धनारी-नटेश्वर की मूर्ति में उन दोनों रूपों का एक शरीर बना रहता है अथवा दिनोंदिन चन्द्रबिम्ब की बढ़ती हुई कलाओं का प्रसार होने पर भी जैसे चन्द्रबिम्ब पर उनका कोई पृथक्-पृथक् लेप नहीं दृष्टिगत होता, ठीक वैसे ही भिन्न-भिन्न चारों चरणों के कारण श्लोक तो पृथक्-पृथक् रहते हैं तथा अध्यायों के अनुक्रम अंकों के कारण अध्याय भी पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होते हैं, पर फिर भी ग्रन्थ के विषय-प्रतिपादन का कहीं कोई पृथक् रूप नहीं है विषय-प्रतिपादन सारे-के-सारे अध्यायों में समानरूप से हुआ है। रत्न तो भिन्न-भिन्न होते हैं, पर जैसे उन्हें जोड़ने वाला धागा एक ही होता है अथवा बहुत से मोतियों को एक में गूँथकर जैसे एक लड़ वाली माला बनती है तथा उसका आकार एक ही दृष्टिगत होता है अथवा पुष्पों और उनसे निर्मित माला की पृथक्-पृथक् गिनती नहीं की जा सकती, पर यदि उनकी सुगन्ध की गणना की जाय तो उसके लिये एक अँगुली उठाने के बाद दूसरी अँगुली उठाने की नौबत ही नहीं आती, ठीक वही बात इन अध्यायों और श्लोकों के बारे में भी समझनी चाहिये। सात सौ श्लोकों वाली इस गीता के अध्यायों की संख्या अठारह है, पर भगवान् ने जिस तत्त्व का निरूपण किया है वह एक ही है, दूसरा नहीं और मैंने भी उस मार्ग का परित्याग किये बिना ही ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट किया है। अब मैं उसी मार्ग के अनुसार प्रस्तुत प्रश्न का भी स्पष्टीकरण करता हूँ। आप लोग मन लगाकर सुनें।

सत्रहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-“हे अर्जुन! ॐ तत्-सत्‌ वाले ब्रह्म नाम पर अश्रद्धा रखे हुए जिन कर्मों को किया जाता है, वे समस्त कर्म असत् होते हैं।” यह सुनकर अर्जुन ने अपने मन में यह सोचा कि मानो भगवान् के इस वचन ने कर्मनिष्ठजनों पर दोष मढ़ा है; पर कर्म करने वाला जीव अज्ञान के कारण अन्धा होता है। उन्हें ईश्वर के स्वरूप का ही पता नहीं चलता तो फिर उन्हें ॐ तत्-सत्‌ वाले ब्रह्म नाम का भला किस प्रकार ज्ञान हो सकता है?

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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