श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
उस प्रिय देवता के मन्दिर की तथा वहाँ की यात्रा करने और आगन्तुकों को पंखा इत्यादि झलने के लिये पैर आठो पहर चलते रहते हैं। उस देवता के आँगन को सजाने के लिये, देवता के निमित्त पूजा के गन्ध, पुष्प इत्यादि उपचार इकट्ठा करने के लिये तथा देवता का आदेश पालन करने के लिये उसके हाथ निरन्तर चलते रहते हैं। शिवलिंग अथवा देवमूर्ति दिखायी देते ही देह पृथ्वी पर लोटकर दण्डवत् करता है और इस प्रकार के ब्राह्मणों की जीभर के शुश्रूषा की जाती है। जो अपने सदाचार इत्यादि गुणों के कारण जगत् में यथेष्ट सम्मान प्राप्त कर चुके होते हैं, अथवा जो लोग प्रवास या व्याधि इत्यादि पीड़ाओं के कारण अथवा संकटादि के कारण दुःखी होते हैं उन जीवों को सुखी किया जाता है। समस्त तीर्थों से श्रेष्ठ जो माता-पिता हैं, उनकी शुश्रुषा के लिये अपना शरीर निछावर कर दिया जाता है। ज्ञान-दान करने में परम दयालु उन गुरुदेव का भजन करना चाहिये जिनके इस संसार-सरीखी दारुण अवस्था में भी मिलते ही समस्त मल एकदम दूर हो जाते हैं। हे सुभट (अर्जुन)! स्वधर्मरूपी अँगीठी में अभ्यास योग के पुट देकर देहाभिमान के समस्त दोष जलाकर राख कर दिये जाते हैं। इस प्रकार के तप करने वालों को यह मानकर कि प्राणिमात्र में आत्मवस्तु है, उन्हें नमन करना चाहिये; सदा परोपकार करते रहना चाहिये तथा विषय-भोगों का पूर्णतः दृढ़तापूर्वक नियमन करना चाहिये। जन्म धारण करने के लिये तो स्त्री के देह का स्पर्श करना ही पड़ता है, पर उस प्रसंग के उपरान्त आजीवन उस स्पर्श से स्वयं को दूर रखना चाहिये। जीवमात्र में प्राण का निवास है, यह समझकर एक तृण भी नहीं तोड़ना चाहिये, किंबहुना उसका छेदन अथवा भेदन भी नहीं करना चाहिये। जिस समय इस प्रकार देह की स्थिति शुद्ध तथा सरल हो जाय, उस समय यह समझ लेना चाहिये कि शारीरिक तप अपनी चरम सीमा को प्राप्त हो गया है। हे पार्थ! इन समस्त व्यवहारों में शरीर की ही मुख्य भूमिका होती है, इसीलिये मैं इसे शारीरिक तप नाम से सम्बोधित करता हूँ। इस प्रकार यह शारीरिक तप का विवेचन हुआ। अब मैं तुमको निष्पाप वाङ्मय तप के बारे में बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (202-215)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |